जानिए, अग्रहरि समाज के शादी-विवाह के रीति-रिवाज


भारतीय समाज में विवाह केवल दो व्यक्तियों का मिलन नहीं, बल्कि दो परिवारों और उनकी सदियों पुरानी परंपराओं का संगम है। अग्रहरि वैश्य समुदाय, अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के साथ, विवाह के हर चरण में गहन अर्थ और ज्ञान को समेटे हुए है। आइए, इन पारंपरिक संस्कारों की गहराई को समझते हैं।


1. बीरा: दृढ़ संकल्प का प्रतीक अग्रहरि समाज में 'बीरा' (पान का बीड़ा) संबंध पक्का करने का एक प्राचीन द्योतक है। यह केवल एक रस्म नहीं, बल्कि किसी कार्य को दृढ़ निश्चय के साथ करने की भारतीय परंपरा का प्रतिबिंब है। पान का बीड़ा, अक्षत (चावल), एक रुपया, हल्दी और सुपारी का इसमें विशेष महत्व है। यह दर्शाता है कि संबंध केवल आज के लिए नहीं, बल्कि एक दृढ़ संकल्प के साथ भविष्य के लिए स्थापित किया जा रहा है। हालांकि, आधुनिकता के साथ इसमें लौकिक प्रदर्शन का तत्व भी जुड़ गया है, पर इसका मूल अर्थ आज भी अडिग है।

2. लग्न: शुभ मुहूर्त का विधान 'लग्न' का शाब्दिक अर्थ है मुहूर्त, यानी एक शुभ समय। कन्या पक्ष द्वारा विवाह का शुभ मुहूर्त निकलवाकर वर पक्ष को भेजा जाता है। यह केवल पंचांग देखकर समय तय करना नहीं, बल्कि यह विश्वास है कि शुभ मुहूर्त में किया गया कार्य सफलता और खुशहाली लाता है। यह परंपरा दोनों परिवारों के लिए नए जीवन की शुरुआत को एक सकारात्मक ऊर्जा से जोड़ने का प्रयास है।

3. खन माटी, मंडपाच्छादन एवं हरिद्रालेपन:

खन माटी: प्रकृति पूजन का आरंभ वैवाहिक कार्यक्रमों का आरंभ 'खन माटी' से होता है, जिसके पीछे मिट्टी का पूजन की गहरी भावना निहित है। यह रस्म हमें अपनी जड़ों, प्रकृति और जीवन को चलाने वाले प्राकृतिक संसाधनों के प्रति सम्मान सिखाती है। मूसल, चक्की, दराती, चूल्हा, मथानी जैसी वस्तुओं का पूजन यह दर्शाता है कि जीवन में साधारण वस्तुओं का भी कितना महत्व है।

मंडपाच्छादन: सामर्थ्य और परंपरा का मेल यह रस्म राजा-महाराजाओं के बड़े-बड़े मंडप बनाने की प्राचीन परंपरा का अनुसरण है। आज भी, अपने सामर्थ्य के अनुसार, एक लकड़ी का खंभा गाड़कर मंडप की नींव रखी जाती है। यह दिखाता है कि भव्यता के बजाय भावना और परंपरा का पालन अधिक महत्वपूर्ण है।

हरिद्रालेपन (हल्दी लगाना): सौंदर्य और स्वास्थ्य का विज्ञान हल्दी का लेप केवल एक रस्म नहीं, बल्कि प्राचीन स्वास्थ्य विज्ञान का हिस्सा है। हल्दी शरीर को शुद्ध करती है, त्वचा को निखारती है, रक्त संचार को बेहतर बनाती है और शरीर को स्फूर्ति प्रदान करती है। विवाह संस्कार का मूल उद्देश्य दो जीवनसाथियों का शारीरिक मिलन है, और हरिद्रालेपन शारीरिक सौंदर्य व स्वास्थ्य को बढ़ाता है, जो इस उद्देश्य में सहायक होता है। हालांकि, कुछ स्थानों पर इस प्रथा का विकृत रूप देखा जाता है, जहाँ स्वच्छता का ध्यान नहीं रखा जाता, जिससे इस वैज्ञानिक और लाभकारी प्रथा का मूल उद्देश्य ही खो जाता है।

4. मोर-मोरी: मुकुट का प्रतीकात्मक रूप विवाह संस्कार में मोर-मोरी (सिर पर पहनने वाला आभूषण) का अत्यधिक महत्व है। यह राजाओं के मुकुटों का ही एक प्रतीकात्मक रूपांतरण है। यह दर्शाता है कि हर वर-वधू अपने विवाह के दिन अपने-अपने संसार के राजा-रानी होते हैं, और सामर्थ्य के अनुसार ही इस शाही प्रतीक को अपनाया जाता है।

5. मायन: पितरों का आशीर्वाद 'मायन' में पितरों और देवताओं की पूजा की जाती है। यह रस्म परिवार के सभी सदस्यों को एकजुट करती है, और पूर्वजों का आशीर्वाद प्राप्त करने का एक तरीका है। यह हमें अपनी वंशावली और उन लोगों के प्रति कृतज्ञता सिखाती है जिन्होंने हमारे जीवन की नींव रखी है।

6. द्वारचार: आदर और खुशी का आदान-प्रदान जब बारात कन्या पक्ष के द्वार पर आती है, तब 'द्वारचार' की रस्म होती है, जिसका अर्थ है द्वार पर स्वागत। चावल और बताशे छिड़कने का रिवाज शुभ संकेत और प्रसन्नता का प्रतीक है। कन्या पक्ष चावल छिड़क कर शुभता का आह्वान करता है, और वर पक्ष बताशे फेंक कर धन्यवाद व अपनी खुशी व्यक्त करता है। कलश और अन्य मांगलिक वस्तुएं शुभता का द्योतक होती हैं।

7. पाणिग्रहण: जीवन भर की प्रतिज्ञा मंगलोपचार के बाद 'पाणिग्रहण' संस्कार होता है। संस्कृत में 'पाणिग्रहण' का अर्थ है हाथ ग्रहण करना – वर वधू का हाथ अपने हाथ में लेता है। यह जीवनभर एक-दूसरे का सहयोग करने और गृहस्थी को साथ मिलकर चलाने की प्रतिज्ञा है। यह केवल शारीरिक मिलन नहीं, बल्कि आत्मिक और वैचारिक जुड़ाव का प्रतीक है।

8. पैर पूजना: श्रद्धा और पवित्रता का भाव वर और कन्या के पैर कन्या पक्ष की ओर से पूजे जाते हैं। इस रस्म में श्रद्धा और पवित्रता की गहरी भावना निहित है। यह नए रिश्तों के प्रति आदर और सम्मान व्यक्त करने का तरीका है, जो दोनों परिवारों के बीच सामंजस्य स्थापित करता है।

9. खिचड़ी: एकजुटता का स्वाद और स्वस्थ भोजन का संदेश विवाह के दूसरे दिन 'खिचड़ी' की रस्म होती है, हालांकि अब यह धीरे-धीरे लुप्त हो रही है। मूल रूप से, यह संध्याकालीन प्रीतिभोज की तैयारी थी और गरिष्ठ भोजन के बाद हल्का व सुपाच्य भोजन लेने का स्वस्थ संदेश भी देती थी। कुछ लोगों का मानना है कि दाल और चावल क्रमशः वर और कन्या पक्ष का प्रतीक हैं, जैसे वे मिलकर एक हो जाते हैं, वैसे ही दोनों परिवार भी एक हो जाएं। हालांकि, कई बार नेग को लेकर होने वाली खींचतान इस सुंदर भावना को धूमिल कर देती है।

विवाह का उत्सव: हास्य और उल्लास
10. अन्य वैवाहिक रश्म एवं रिवाज़: इन प्रमुख संस्कारों के अतिरिक्त, अग्रहरि विवाह में मिलनी, परछन, गाली-गवाई, जूता-चुराई, बाती मिलाई जैसे अनेक कार्यक्रम भी होते हैं। ये रस्में विवाह के गंभीर माहौल में हास्य, उल्लास और मनोरंजन का संचार करती हैं, इसे एक यादगार उत्सव बनाती हैं।

अग्रहरि वैश्य समाज का परिचय: उत्पत्ति, विकास और आज की सामाजिक-शैक्षणिक स्थिति

 भारतीय समाज में वैश्य समुदाय, अपने व्यापारिक कौशल और आर्थिक योगदान के लिए जाना जाता है। इस विशाल समुदाय के भीतर कई उपजातियाँ हैं, जिनमें 'अग्रहरि' वैश्य जाति एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। यह ब्लॉग पोस्ट अग्रहरि समुदाय के ऐतिहासिक सफर, उनकी विशिष्ट पहचान और वर्तमान में उनकी सामाजिक-आर्थिक प्रगति पर प्रकाश डालता है।

अग्रहरि जाति की उत्पत्ति और ऐतिहासिक जड़ें

अंग्रेजी लेखकों के अनुसार, सन् 1911 में अग्रहरि वैश्य जाति की अनुमानित संख्या लगभग दो हज़ार थी। ये मुख्य रूप से जबलपुर, रायपुर, बिलासपुर और तत्कालीन रियासतों में बसे हुए थे। अग्रहरि वैश्य स्वयं को मूलतः वैश्य जाति से संबंधित मानते हैं और ब्राह्मणों की तरह यज्ञोपवीत धारण करते हैं। अग्रवाल वैश्यों के समान ही, ये भी स्वयं को ऐतिहासिक नगरों आगरा और अग्रोहा से जुड़ा हुआ मानते हैं, जो इनके अग्रवालों से घनिष्ठ संबंधों को दर्शाता है।

श्री नेसफील्ड ने अपनी पुस्तक 'Tribes and Castes' (Mr. Crooks) में उल्लेख किया है कि अग्रवाल और अग्रहरि दोनों जातियाँ कभी एक ही वंश की शाखाएँ थीं। उनके मतभेद का कारण "किसी मामूली खाने-पीने की बात पर आपस में विवाद" होना बताया गया है, जिसके परिणामस्वरूप वे अलग हो गईं।

'अग्रवाल जाति के प्राचीन इतिहास' में भी यह जानकारी मिलती है कि मध्यप्रांत और बनारस में 'अग्रहरि' नामक एक देशज जाति मौजूद थी, जिसे अब अग्रवालों से पृथक माना जाता है। हालांकि, ये लोग भी अपने मूल निवास स्थान के रूप में अग्रोहा और आगरा का ही उल्लेख करते हैं। श्री नेसफील्ड और श्री रसेल ने अनुमान लगाया कि इन अग्रहरि वैश्यों का अग्रवालों से गहरा संबंध रहा है, लेकिन किसी समय हुए मतभेद के कारण अग्रहरियों की एक पृथक बिरादरी का गठन हो गया।

प्रसिद्ध इतिहासकार सत्यकेतु विद्यालंकार अपनी पुस्तक "अग्रवाल जाति का प्राचीन इतिहास" (पृष्ठ 264) में इस अलगाव को और स्पष्ट करते हुए लिखते हैं:

"यह जाति अग्रवंश की ही एक शाखा है। किसी तुच्छ बात पर आपसी विवाद के कारण इन्होंने अग्रवालों से स्वयं को पृथक कर लिया। अग्रवाल नाम से एक दल विख्यात रहा, जबकि दूसरा दल, जिसकी संख्या कम थी, भिन्न आहार के कारण 'अलगाहारी' कहलाया। कालांतर में यही नाम 'अग्राहारी''अग्रहरि' में परिवर्तित हो गया।"

एक अन्य प्रचलित मत के अनुसार, इस जाति के पूर्वज अग्रवाल थे जो अग्रोहा में रहते थे। अग्रोहा के नष्ट हो जाने के बाद, वे अन्य नगरों में बस गए। इन नगरों के स्थानीय लोग उन्हें 'अग्रहा हारे' (आगरा से हारे हुए) कहने लगे, और यही शब्द धीरे-धीरे 'अग्रहरि' में बदल गया। सन् 1894 ई. तक, यह जाति अग्रवालों से स्पष्ट रूप से अलग मानी जाने लगी। अग्रहरि जाति भी अग्रवालों की भांति खान-पान में शुद्धता और यज्ञोपवीत धारण करने की परंपरा का पालन करती है।

जनगणना आयुक्त ने भी अग्रहरियों और अग्रवालों के बीच के संबंध को स्वीकार करते हुए लिखा है:

"It may supply an explanation of the divergence of the Agrahari from the Agrawalas. There is no doubt that they are closely connected with the Agrawalas." (C&T, p. 133-134)

महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने अपनी कृति 'जययौद्धेय' की भूमिका में इन संबंधों को और व्यापक संदर्भ में समझाते हुए लिखा है:

"अग्रवाल, अग्रहरि, रोहतगी, रस्तोगी, श्रीमाल, ओसवाल, वर्णवाल आदि वैश्य जातियाँ यौद्धेयों की संतान हैं, जो गणेच्छेद के बाद तलवार छोड़ तराज़ू उठाने को मजबूर हुईं।"



इन ऐतिहासिक संदर्भों से यह स्पष्ट होता है कि अग्रहरि, अग्रवालों की ही एक उपशाखा है, जिसने समय, क्षेत्र, रीति-रिवाज और विचारों की भिन्नता के कारण अपनी एक स्वतंत्र पहचान बना ली है।

आजीविका, भौगोलिक फैलाव और आधुनिक प्रगति

अग्रहरि समुदाय की आजीविका पारंपरिक रूप से दुकानदारी (मिठाई, किराना), कृषि व्यापार और नौकरी पर आधारित रही है। यह जाति उत्तर भारत के लगभग सभी राज्यों — उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र आदि — में फैली हुई है।

मुंबई, महाराष्ट्र में हमारे समाज के लोग मुख्यतः सब्जी बेचने के व्यवसाय में सक्रिय हैं। साथ ही, तमाम युवा बड़ी कंपनियों में नौकरी कर अपनी तरक्की कर रहे हैं, और नई पीढ़ी शिक्षा हासिल कर उद्यमिता (entrepreneurship) की ओर भी बढ़ रही है। यह देखकर खुशी होती है कि बहुत से लोग सरकारी नौकरियों जैसे आईएएस, आईपीएस, आईएफएस आदि में भी सफल होकर उच्च पदाधिकारी बन चुके हैं।

हालांकि, कई स्थानों पर 'अग्रहरि' नाम अभी भी अपरिचित है, और संदर्भ के लिए लोगों को अग्रवाल कहा जाता है। स्थानीय लोग अक्सर उन्हें उनके व्यवसाय के आधार पर 'महाजन', 'बनिया', 'सेठ', 'हलवाई' आदि नामों से पुकारते हैं।

आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति

आर्थिक स्थिति: अग्रहरि समाज परंपरागत रूप से सरल जीवनशैली अपनाता आया है। हमारे लोग, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में, आर्थिक रूप से पिछड़े हुए हैं, जहां कई सदस्य ठेला, खोमचा, या छोटी दुकानें चलाकर अपने परिवार का भरण-पोषण करते हैं। हालांकि, मध्यमवर्गीय वर्ग भी तेजी से बढ़ रहा है, और कुछ परिवार संपन्नता की ओर बढ़ रहे हैं। यह स्पष्ट है कि अग्रहरि समाज मेहनत और लगन से अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने की दिशा में निरंतर प्रयासरत है।

शैक्षणिक स्थिति: शैक्षणिक क्षेत्र में भी अग्रहरि समाज ने पिछले दशक में अभूतपूर्व प्रगति की है। जहां पहले ग्रामीण इलाकों में शिक्षा को उतना महत्व नहीं दिया जाता था, वहीं अब लड़के और लड़कियां समान रूप से उच्च शिक्षा ग्रहण करने के लिए प्रेरित हैं। खासकर शहरी क्षेत्रों में हमारे युवा शिक्षा के क्षेत्र में उत्कृष्टता प्राप्त कर रहे हैं और नौकरी, सरकारी सेवा एवं उद्यमिता के क्षेत्र में सफल हो रहे हैं। यह बदलाव हमारे समाज की सकारात्मक सोच और प्रगति की सबसे बड़ी मिसाल है।

जनगणना के लिए जागरूकता

हमारी जाति अभी भी ओपन (सामान्य) श्रेणी में आती है, जबकि आर्थिक स्तर पर हम बहुत से अन्य समुदायों से पिछड़े हुए हैं। इसीलिए, यह समय की मांग है कि हम सामाजिक एवं आर्थिक विकास के लिए ओबीसी (OBC) श्रेणी में आने की पहल करें। हमारे समाज के प्रतिनिधि इस दिशा में सक्रिय रूप से कार्यरत हैं, ताकि आने वाली पीढ़ी को बेहतर अवसर मिल सकें और वे समाज में अपनी भूमिका और भी मजबूती से निभा सकें।

अग्रहरि समाज की विशिष्ट पहचान को लेकर अभी भी लोगों में भ्रम पाया जाता है, क्योंकि हमारे समाज के लोग विभिन्न उपनाम जैसे गुप्ता, वैश्य, साव, महाजन, बनिया आदि उपयोग करते हैं। इससे न केवल हमारी असली संख्या का सही पता लगाना कठिन हो जाता है, बल्कि हमारी सामाजिक एकता पर भी असर पड़ता है।

इसलिए, हम सभी अग्रहरि समाज के सदस्यों से निवेदन करते हैं कि आगामी जनगणना में अपनी जाति का स्पष्ट और सही उल्लेख 'अग्रहरि वैश्य' के रूप में करें। ऐसा करने से न केवल हमारी असली जनसंख्या सामने आएगी बल्कि हमारे अधिकारों की लड़ाई और सामाजिक विकास के प्रयास और अधिक सशक्त होंगे।


अग्रहरि कौन हैं हम? अग्रहरि शब्द की व्युत्पत्ति का पूरा इतिहास

हमारे अग्रहरि समुदाय का नाम सिर्फ एक शब्द नहीं, बल्कि हमारी सदियों पुरानी पहचान है। विभिन्न ग्रन्थों एवं विद्वानों ने 'अग्रहरि' शब्द की व्याख्या विभिन्न दृष्टिकोणों से की है। जिनके अध्ययन से अनेक तथ्य सामने आते हैं।




१. महाराजा अग्रसेन और अहिंसा की नींव

हम सभी को अपने परम श्रद्धेय पूर्वज महाराजा अग्रसेन पर असीम गर्व है। उन्होंने प्राचीन काल में अग्रोहा और आगरा जैसे समृद्ध नगरों की स्थापना की। अग्रोहा उनकी राजधानी थी, जहाँ से वे स्वयं शासन करते थे, जबकि आगरा में उनके अनुज 'शूरसेन' का राज था। इसी कारण यह क्षेत्र 'शौरसेन' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। महाराजा अग्रसेन ने कुल 18 महायज्ञ संपन्न किए। इनमें से 17 यज्ञ निर्विघ्न और सफलतापूर्वक पूरे हुए।

लेकिन, 18वें यज्ञ में होने वाली पशुबलि ने महाराजा अग्रसेन के मन को अत्यधिक विचलित कर दिया। उन्हें लगा कि पशुवध एक महापाप है, और वे ऐसी हिंसा के पक्ष में नहीं थे। इसलिए, उन्होंने 18वें यज्ञ को अधूरा छोड़ दिया। उन्होंने तत्काल आदेश दिया, "मैं पशु हिंसा को उचित नहीं समझता, अतः मैं अपने भाई, पुत्रों, कन्याओं और कुटुम्बियों को तथा उपस्थित सत्रह वैश्य कुलों को यही उपदेश देता हूँ कि कोई भी हिंसा न करे।"

यह घटना 'अग्रोतकान्वय' (पृष्ठ ६१, ६२) में भी वर्णित है और यह स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि महाराजा अग्रसेन के समय में ही हमारे समाज में 17 विशिष्ट वैश्य कुल मौजूद थे, जिनकी अगुवाई वे स्वयं कर रहे थे।
२. हरिजी का प्रभाव और 'अग्रहरि' शब्द की उत्पत्ति

यह एक महत्वपूर्ण किंवदंती है कि 18वें यज्ञ की देखरेख कुबेर 'हरिजी' करने वाले थे। हरिजी भगवान विष्णु के भक्त थे और अहिंसा में उनकी गहरी आस्था थी। यह अत्यंत संभव है कि उन्हीं की गहन प्रेरणा और प्रोत्साहन से महाराजा अग्रसेन ने अहिंसा का मार्ग अपनाया और यज्ञ में पशुबलि को रोका। यह उनके वैश्य धर्म के अनुरूप भी था, क्योंकि कौटिल्य के अर्थशास्त्र (१/४) के अनुसार, वैश्य वर्ग का परम धर्म कृषि, पशुपालन और वाणिज्य ही है।

'उरु चरितम्' (७७-७८) में भी इसी भावना को व्यक्त किया गया है:

"वैश्यों का प्रधान कर्म मुख्यतः यह कहा गया है कि वे पशुओं का पालन तथा उनकी सब ओर से रक्षा करें। यज्ञ में पशुवध होता है, इसलिए मैं पाप का भागी हूँ। यह विचार प्रतिक्षण मेरे हृदय में दृढ़ होता जा रहा है।"

हरिजी ने हिंसा से जुड़े कार्यों में सहयोग नहीं दिया और उन्होंने स्वयं को अन्य अग्रवालों से अलग कर लिया। इस प्रकार, वे 'अलगाहारी' (अलग आहार करने वाले) बनकर अपना शुद्ध भोजन अलग से बनाने और ग्रहण करने लगे। समय के साथ, 'अलगाहारी' शब्द 'अल्गाहारी' में बदला, फिर 'अग्रहारि' में और अंततः हमारा वर्तमान नाम 'अग्रहरि' बन गया। इस परिवर्तन का उल्लेख 'गुप्त जाति का इतिहास' (पृष्ठ ४०) में भी मिलता है।

३. 'अग्र' विशेषण का महत्व और हरिजी की शाखा

हरिजी ने अग्रवालों से पृथक होने के बाद भी अपने महान अग्रवंश की स्मृति को चिरस्थायी रखने के लिए अपने नाम के आगे 'अग्र' विशेषण लगाया और स्वयं को अग्रहरि कहलाने लगे। 'दिलवारी वैश्य इतिहास' (पृष्ठ १६७) के अनुसार, वे अग्रवाल जो हरिजी की विचारधारा या शाखा से जुड़े, वे 'अग्रहरि' नाम से प्रसिद्ध हुए। यह हमारी एक विशिष्ट शाखा का प्रतिनिधित्व करता है।
४. 'अग्रहार' शब्द और वैश्यवर्ग से संबंध

शब्दकोश में 'अग्रहार' शब्द के तीन मुख्य अर्थ दिए गए हैं:
  1. राजा की ओर से ब्राह्मणों को दी हुई भूमि
  2. देवता को अर्पित संपत्ति
  3. धान्य से भरे खेत

चूँकि हमारे पूर्वज वैश्य वर्ग के रूप में प्रमुख रूप से कृषि कार्य में संलग्न थे, यह संभव है कि धान्य से परिपूर्ण खेतों के स्वामियों के लिए 'अग्रहारी' शब्द का प्रयोग हुआ हो। अथवा महाराजा अग्रसेन स्वयं एक महान दानी थे, संभव है उन्होंने ब्राह्मणों को कोई भूभाग या संपत्ति अर्पित की हो, और उस भूभाग में निवास करने वाले लोग 'अग्रहारि' कहलाने लगे हों।

५. 'वाल' और 'हारी' शब्दों का प्रयोग: क्षेत्रीय भिन्नता का प्रभाव

'वाल' और 'हारी' दोनों ही शब्द संबंध सूचक हैं, जिनका मूल अर्थ 'रहने वाले' या 'निवासी' होता है। इस प्रकार, 'अग्रवाला' का अर्थ अग्रोहा के निवासी हैं, और ठीक उसी तरह, 'अग्र+हारी' का अर्थ भी अग्रोहा के निवासी हैं। यह प्रश्न उठता है कि कुछ ने 'वाला' और कुछ ने 'हारी' शब्द का प्रयोग क्यों किया? संभावना यह है कि प्रांतीय भेद के कारण इन भिन्न शब्दों का प्रयोग हुआ हो, जो बाद में एक निश्चित पहचान का सूचक बन गया।

६. 'अग्रोहारी' से 'अग्रहरि' तक का सफर

जिस प्रकार 'महेश्वरी' शब्द से महेश्वर नामक मूल स्थान का बोध होता है, उसी प्रकार यह माना जा सकता है कि अग्रोहा के निवासियों ने स्वयं को 'अग्रोहारी' कहा होगा। समय के साथ, 'अग्रोहारी' शब्द का परिवर्तित रूप 'अगराहारी' और अंततः हमारा नाम 'अग्रहरि' बन गया। यह भाषा विज्ञान के "प्रयत्नलाघव" या "मुख-सुख" सिद्धांत का एक उदाहरण है, जहाँ उच्चारण की सुविधा के लिए शब्दों में परिवर्तन होता है।

७. 'जाति भास्कर' में अग्रहरि का उल्लेख

'जाति भास्कर' नामक एक प्राचीन ग्रंथ में एक श्लोक आया है:

"
अग्रवालस्य वीर्येण संजाता विप्रयोषिति अग्रहारी, कस्त्रवानी, माहूरी संप्रतिष्ठिताः
" (जात भास्कर पृष्ठ २६३)

इस श्लोक के अनुसार, अग्रहारी, कस्त्रवानी और माहूरी, अग्रवाल पिता और ब्राह्मण माता की वर्ण संकर संतान हैं। पुराने स्मृतिकारों ने विविध जातियों की उत्पत्ति की व्याख्या इसी प्रकार की है।

लेकिन, यहाँ एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठता है: यदि वंश का नाम पिता पर चलता है और अग्रवाल को पिता बताया गया है, तो उनसे अन्य वंशों के नामकरण क्यों हुए?

श्री सत्यकेतु विद्यालंकार डी.लिट जैसे आधुनिक और सम्मानित विद्वानों ने इस मत का पुरजोर विरोध किया है। उन्होंने 'अग्रवाल जाति का प्राचीन इतिहास' (पृष्ठ २६५) में स्पष्ट लिखा है: 'हमारी सम्मति में इसमें सत्यता नहीं है। हमारा विचार है कि अग्रवाल जाति में से ही पृथक होकर इन बिरादरियों की स्थापना हुई, वर्ण संकर के कारण से नहीं। अग्रहारी वैश्यों का अग्रवालों से घनिष्ठ संबंध है, यह बात निश्चित है।' हम अपने समुदाय के रूप में इस आधुनिक और तार्किक मत का समर्थन करते हैं।

८. महाराज अग्रसेन के पुत्र 'हरि' से संबंध की संभावना

अग्रहारी-मित्र प्रयाग के विद्वान संपादक श्री भवानी प्रसाद गुप्त का विचार है कि महाराजा अग्रसेन के पुत्र 'हरि' की संतान ही अग्रहरि वैश्य हैं। परन्तु, महाराजा अग्रसेन की १८ रानियों से उत्पन्न ५४ पुत्रों के नामों में हरि के नाम का कहीं उल्लेख नहीं मिलता। इस संदर्भ में दो कल्पनाएँ की जा सकती हैं:

महाराज अग्रसेन के सबसे बड़े पुत्र का नाम विभु था। 'विभु' का अर्थ विष्णु या हरि भी होता है। संभव है कि विभु के समानार्थी 'हरि' से ही हमारे अग्रहरि वंश की उत्पत्ति हुई हो।


दूसरी संभावना अधिक तथ्यपूर्ण और तर्कसंगत लगती है। 'हरि' सीधे तौर पर अग्रसेन के पुत्र नहीं थे। चूँकि राजा और प्रजा में एक पिता-पुत्र का संबंध माना जाता था, इसीलिए हरि को महाराज अग्रसेन का 'पुत्र' कहा गया हो। संभवतः, हरिजी का महाराज अग्रसेन पर विशेष प्रभाव था, जिसने उन्हें यज्ञ में बलि जैसे हिंसात्मक कार्यों से ग्लानि उत्पन्न की और उन्हें अहिंसा की ओर मोड़ा। इस कल्पना से 'अग्रोतकान्वय' में दिए गए तथ्य और श्री भवानी प्रसाद गुप्त के तथ्य में एक सामंजस्य स्थापित हो जाता है।

९. मुग़ल काल में विभाजन: अग्रवाल और माहुर की पहचान

मुग़ल काल का समय हमारे वैश्य समाज के लिए एक चुनौती भरा दौर था, जहाँ विभिन्न परिस्थितियाँ उत्पन्न हुईं। जिस प्रकार राजपूतों में राजा मानसिंह जैसे कुछ लोगों ने अकबर को अपनी लड़कियाँ देकर मेल बढ़ाया, वहीं राणा प्रताप जैसे वीरों ने घास की रोटी खाकर भी जंगल-जंगल भटकते हुए अंत तक अकबर का मुकाबला किया; यही स्थिति हमारे वैश्य समाज में भी थी।

वैश्यों के एक वर्ग ने राज्य के साथ मेल-मिलाप बढ़ाकर अपना यश और वैभव बढ़ाया, और वे मुसलमान छावनियों में 'मोदी' जैसे महत्वपूर्ण पदों पर प्रतिष्ठित हुए। वहीं, दूसरे वर्ग ने अपनी आन-बान-शान और आत्म-सम्मान के लिए विदेशी शासकों से टक्कर ली। ऐसे स्वाभिमानी और राष्ट्रभक्त वैश्य, मुगल काल में पददलित हुए और उन्हें अपमानजनक रूप से 'माहुर' (विष की गाँठ अर्थात शत्रु) नाम से संबोधित किया जाने लगा। इस प्रकार, अकबर के शासन काल (सन १५५६ से १६०५) के मध्य अग्रवालों के दो मुख्य भेद हो गए:
  1. अग्रवाल
  2. माहुर
'अग्रोतकान्वय' (पृष्ठ १०८) में भी माहुर और अग्रहरि को एक ही बताते हुए उल्लेख किया गया है: 'गोत्रों की समानता के कारण यह जाति अग्रवालों की एक शाखा है और बिहार के वर्तमान माहुर वैश्य भी इसी वर्ग की शाखा हैं।' यह उद्धरण मुगलों को डोला न देने की हमारी बहु प्रचलित किंवदंती का भी समर्थन करता है, जो हमारे समुदाय के स्वाभिमान को दर्शाता है।

१०. 'अग्रहार भूमि' से 'अग्रहरि' की व्युत्पत्ति

बाबू सीताराम एडवोकेट द्वारा रचित 'अग्रहरि जाति की उत्पत्ति' में लेखक ने 'अग्रहार भूमि' के निवासियों को 'अग्रहरि' कहा है। अनेक ग्रंथों के उद्धरणों से इस बात की पुष्टि होती है कि पंजाब प्रांत के हिसार जिले की फतेहबाद तहसील से सात मील दूर सिरसा-दिल्ली सड़क के किनारे अग्रजनपद था। पुरातात्विक विभाग की खुदाई में प्राप्त मुद्राओं पर भी 'अग्रोदक' शब्द लिखा हुआ है। सन १९३६ की खुदाई में प्राप्त ताम्र सिक्कों पर ब्राह्मी लिपि में 'अगोद के अगाच जनपद' शब्द अंकित हैं।

श्री बावन शिवराम आपटे के संस्कृत-हिंदी कोश (पृष्ठ १२०८) में अग्रहार शब्द की व्युत्पत्ति के संबंध में लिखा गया है कि अग्रहार भूमि में हरि और हर के मंदिर आमने-सामने हैं, इसी से अग्रहार शब्द बना। श्री बाबू सीताराम जी का एक और मत है कि 'अग्रहरि' शब्द की व्युत्पत्ति 'अग्रऋषि' से ही संबंधित है। इसके अतिरिक्त, शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार भी हो सकती है: अग्रऋषि की हरि उपासक संतान जो अपनी जाति को अपने पूर्वज अग्रऋषि एवं उपास्य देव हरि के नामों से विभाजित करना चाहती थी, उन्होंने स्वयं को 'अग्रहरि' संज्ञा से संबोधित किया।

यह पुस्तिका (अग्रहरि जाति की उत्पत्ति) अनेक प्रामाणिक ग्रंथों के उद्धरणों द्वारा हमारी 'अग्रहरि' जाति की प्रामाणिकता पर प्रकाश डालती है। अग्रजनपद, अग्रोहा आदि ऐतिहासिक स्थान हैं। मेरे मतानुसार, अग्रोहा निवासियों के लिए 'अग्रोहारी' शब्द प्रयुक्त हुआ हो, जिसका परिवर्तित रूप 'अग्रहारी' या 'अग्रहरि' बन गया है।

११. युद्ध में पराजय से 'अग्रहरि' नामकरण, एक अन्य पहलू

कुछ मतों के आधार पर यह भी कहा गया है कि आगरा (अथवा अग्रोहा) में हुए एक युद्ध में पराजय के बाद, जो लोग आगरा हार कर दूसरे स्थान पर रहने लगे, वह समुदाय 'अगरा-हारी' नाम से संबोधित किया जाने लगा। यही शब्द बाद में 'अग्रहरि' अथवा 'अग्रहरी' नाम से सुविख्यात हो गया। ('अग्रहरि समाज मासिक अक्टूबर १९६७ पृष्ठ २८')

१२. राजा हरि के नाम पर 'अग्रहरि' का प्रचलन

एक मत यह भी है कि राजा अग्रसेन की पाँचवीं पीढ़ी में राजा हरि हुए, और उन्हीं राजा हरि के नाम पर 'अग्रहरि' शब्द प्रचलित हो गया। हालांकि, हमारे समुदाय ने दो महान राजाओं, अग्रसेन और हरि, के नाम पर अपना नाम अग्रहरि रखा हो, यह मत विशेष तर्कसंगत नहीं लगता है।

१३. खान-पान और संस्कृति के आधार पर विभाजन

कुछ इतिहासकारों का मत है कि यह समुदाय खान-पान, प्राचीनतम संस्कृति व ईश्वर को अधिक मानता था इससे 'अग्र' शब्द के साथ हरि शब्द जोडकर अग्रवालों से पृथक बिरादरी अग्रहरि बनाली।

इन विशिष्ट मतों के अतिरिक्त अनेक विद्वानों ने अग्रहरि शब्द की व्युत्पत्ति बताने का प्रयास किया है परन्तु लगभग सभी मत उपरोक्त मतों एवं तर्कों के अन्तर्गत ही आते हैं। इस प्रकार विचार मंथन करने से कुछ तथ्य सामने आते हैं - 'अग्रहरि' व 'अग्रहारी' शब्द में से कौन सा शब्द उपयुक्त है?

अग्रहरि जाति का सम्बन्ध निर्विवाद रूप से अग्रवालों से है। साथ ही महाराज अग्रसेन का सम्बन्ध भी अग्रहरि जाति से है।

अग्रवालों से किसी कारण विशेष से यह बिरादरी पृथक हुई। गुलाबचन्द एरन के मतानुसार सन ११९४ ई. में अग्रहरि जाति अग्रवाल जाति से पृथक हो गई। यह जाति भी अग्रवंश की एक शाखा ही है।
(अग्रवाल जाति का प्रामाणिक सचित्र इतिहास- गुलाबचन्द एरन, ६६ पृष्ठ)

अग्रहरि जाति शुद्ध सात्विक भोजन करने वाली यज्ञोपवित धारण करने वाली है। अग्रवालों के समान ही यह भी अति प्राचीन है। परन्तु अल्प संख्यक होने के कारण अग्रवालों के समान विशेष जन प्रसिद्ध नहीं हो सकी।

'अग्रहरि' और 'अग्रहारी' दोनों ही शब्द एक ही बिरादरी के लिये प्रयुक्त किये गये हैं। प्रान्तीय भेद व प्रयत्नलाघव मुख-सुख (भाषा विज्ञान के सिद्धान्त) के कारण शब्दों को तोड़ा मरोड़ा जा सकता है। कुछ भाई अपने को 'अग्रोहारी' भी बताते हैं।

अग्रहरि समाज की होनहार बेटी बनी जज, पीसीएस जे 2016 में हुआ सोनम गुप्ता का चयन


उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले के प्रतिष्ठित उद्यमी एवं ओबरा विधान सभा से पूर्व बसपा प्रत्याशी सुभाष अग्रहरि की बेटी सोनम गुप्ता ने उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग की पीसीएस जे 2016 परीक्षा उत्तीर्ण करके जज बन गयी है। यह उनके कड़े परिश्रम का परिणाम है। परीक्षा उत्तीर्ण होने पर सोनम बेहद खुश है। शुक्रवार 13 अक्टूबर 2017 को देर शाम उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग ने UPPCS-J 2016 का अंतिम परिणाम घोषित कर दिया।  यूपीपीसीएस जे की लिखित परीक्षा और साक्षात्कार के बाद 218 पदों का चयन परिणाम घोषित हुआ है, जिनमें सोनम गुप्ता ने 101 वाँ स्थान पाकर अग्रहरि समाज का नाम रोशन किया है।





बता दें कि सोनम ओबरा स्थित सेक्रेट हार्ट कान्वेंट स्कूल की छात्रा रही है।  जानेमाने कारोबारी व समाजसेवी सुभाष अग्रहरि की सबसे छोटी पुत्री है। साल 2015 इनकी बड़ी बेटी श्वेता गुप्ता (IES Officer) का चयन भारतीय अभियांत्रिकी सेवा में हुआ था।  इस वर्ष सोनम गुप्ता ने यूपी पीसीएस जे की प्री, मेन्स के बाद इंटरव्यू परिणाम में सफलता हासिल कर जज बनने का सपना पूरा कर पूरे अग्रहरि वैश्य समाज का मान बढ़ाया है। कड़ी मेहनत कर सफलता हासिल करने के लिए नियमित पढ़ाई पर ध्यान लगाकर सोनम ने अपने माता-पिता के सपने को साकार किया है। 


सुभाष अग्रहरि के दो बड़ी बेटियो में एक एमबीबीएस डॉक्टर है तो एक आई०ई०एस० अधिकारी है। अब तीसरी बेटी भी जज बन गयी। इस सफलता पर माता पिता, क्षेत्रवासियों व स्वजातीय बंधुओ सहित परिजनों ने ख़ुशी जाहिर की है।

हम आशा करते हूं कि कु. सोनम गुप्ता इसी प्रकार भविष्य मे अग्रहरि समाज एवं अपने माता पिता का नाम रोशन करेंगी और अपने अभीष्ट लक्ष्य को यथा समय प्राप्त करेंगी। आज हम सभी को गर्व करना चाहिए कि हमारे समाज के युवा शिक्षा, खेल एवं राजनीति व अन्य क्षेत्रों  में नित नई ऊंचाइयों की ओर बढ़ रहे हैं जो समाज के लिए गौरव की बात हैं।




डॉ० रिंकी अग्रहरि का UPPSC में चयन, बनी चिकित्सा अधिकारी


कहते है शिक्षा में ही विकास का मूल व्याप्त है। शिक्षा एक ऐसा यंत्र है, जो सभी को जीवन में आगे बढ़ने और कामयाब होने के साथ ही जीवन में कठिनाइयों और चुनौतियों पर जीत प्राप्त करने की क्षमता देती है। इसे बहुत अच्छे तरीके से साबित किया है हमारे अग्रहरि समाज की डॉ० रिंकी अग्रहरि ने, जिन्होंने तमाम चुनौतियो का सामना करते हुए व खुद के अथक परिश्रम के बूते  सफलता का परचम लहरा दिया है।



उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जनपद अंतर्गत कादीपुर तहसील के बेलवाई बाज़ार मे छेदीलाल अग्रहरि और श्रीमती गीता देवी के घर पुत्री के रूप में रिंकी अग्रहरि का जन्म हुआ।  

डॉ० रिंकी अग्रहरि का उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग (UPPSC) द्वारा संचालित प्रतियोगी परीक्षा उत्तीर्ण कर एलोपैथिक चिकित्सा अधिकारी बन गई है। उनके अफसर के पद पर चयन होने पर उनके परिवार व पूरे इलाके मे खुशी का माहौल है। डॉ० रिंकी की प्रारंभिक शिक्षा बेहद ही सामान्य एवं ग्रामीण परिवेश हुआ। गाँव के ही प्राइमरी स्कूल से उनकी शिक्षा का सफ़र शरू हुआ था। साल 2009 मे MBBS के लिए कानपूर के गणेश शंकर विद्यार्थी मेडिकल कॉलेज मे उनका चयन हुआ और फिलहाल वें लखनऊ के किंग जॉर्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय से MD की डिग्री कर रही है।

रिंकी अपनी कामयाबी का श्रेय अपने माता-पिता और अध्यापकों को देती है। उनकी प्रेरणा की श्रोत उनकी बड़ी बहन विनीता अग्रहरि है, जो वर्तमान में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय अंतर्गत बाल विकास परियोजना अधिकारी के पद पर सेवा दें रही है। 
अग्रहरि समाज डॉ० रिकी अग्रहरि (एलोपैथिक चिकित्सा अधिकारी) व उनके परिवार की उज्जवल भविष्य की कामना करता है।  


स्वाधीनता संग्राम में रहा अग्रहरियों का महत्वपूर्ण योगदान


देश की गुलामी से मुक्त होने की दृढ इच्छा शक्ति सर्वप्रथम विद्रोह के रूप में वर्ष १८५७ में स्वतंत्रता की चेतना के साथ अभिव्यक्त हुई जो कि लगभग ९० वर्षो के निरंतर संघर्ष के पश्चात १५ अगस्त १९४७ में स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ पूरी हुई। स्वाधीनता के इस आन्दोलन में अनेक क्रांतिकारियों और स्वतंत्रता सेनानियों का महत्वपूर्ण योगदान रहा। एक ओर नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, खुदीराम बोस, जयप्रकाश नारायण, महात्मा गाँधी, विनोबा भावे, जवाहरलाल नेहरु, लोकमान्य तिलक, सरदार वल्लभभाई पटेल आदि महापुरुषों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई वहीं दूसरी ओर हमारे अग्रहरि वैश्य समाज के रणबांकुरों ने भी स्वाधीनता के आन्दोलन में पीछे नही हटे और देश की आज़ादी के इस महासंघर्ष में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। देश की आजादी में अग्रहरि समाज का योगदान अमूल्य रहा है। इसे कोई भी कभी भुला नहीं सकता। आज हम अपने समाज के ऐसे ही वीर महापुरुषों के बारे में जानेंगे, जिन पर समाज को फक्र हैं।

मिट्ठूलाल अग्रहरि (Mitthulal Agrahari)

स्वतंत्रता सेनानी स्वर्गीय श्री मिट्ठूलाल अग्रहरि जी ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ जम कर हिस्सा लिया था। दिनांक ३ सितंबर १९४२ को मिट्ठूलाल जी को गिरफ्तार कर उनके विरूद्ध ३८ तथा ३५ (४) डी.आई.आर. के तहत मुकदमा पंजीकृत कर कारावास भेज दिया गया था। इस दौरान आप ६ महीने तक जेल मे रहे। जेल से छूटने के बाद भी श्री अग्रहरि ने देश को स्वतंत्रता दिलाने के लिए संघर्षरत रहे। १०५ वर्षीय वयोवृद्ध सेनानी मिट्ठूलाल अग्रहरि को ५ अक्टूबर २००९ को ह्रदय की गति रुकने (Cordial attack) के कारण मृत्यु हो गई। अश्रुपूरित नयनो के बीच भारत माता के इस महान सपूत श्री मिट्ठूलाल अग्रहरि को उत्तर प्रदेश प्रशासन ने गार्ड ऑफ हॉनर सम्मान के साथ अंतिम विदाई दी।

धर्मनाथ अग्रहरि (Dharmanath Agrahari)

स्वतंत्रता संग्राम सेनानी स्वर्गीय श्री धर्मनाथ अग्रहरि जी बिहार प्रान्त से सिवान जनपद के चैनपुर, महावीर चौक के निवासीथें। आपने सन १९४२ में राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान तत्कालीन छपरा जिलें के अंग्रेज दुश्मनो के छक्के छुड़ाने वाले रणबांकुरो में से एक थें। आपके पिता का नाम स्वर्गीय सरयू प्रसाद अग्रहरि था। ३ अक्टूबर २००८ को भारत माँ के वीर सपूत धर्मनाथ अग्रहरि जी का देहावसान हो गया। अंतिम संस्कार सरयू नदी के पावन तट पर हुआ।

हरिनारायण अग्रहरि (Hari Narayan Agrahari)

क्रांतिकारी स्वर्गीय श्री हरिनारायण अग्रहरि को बनारस के प्रसिद्ध धानापुर थाना काण्ड के लिए जाना जाता हैं। श्री अग्रहरि ने सन १९४२ में भारत छोडो आन्दोलन में भाग लेते हुए क्रांतिकारी साथियों के साथ धानापुर पुलिस थाना को तहस नहस कर दिया। क्रांतिकारियों ने पुलिस अधिकारियो को मारने के बाद उनके मृत शरीर को गंगा में फेक दिया। और सरकारी ईमारत में भारत का झंडा लहराया। वाराणसी के इस प्रसिद्ध धानापुर थाना कांड में स्व. हरिनारायण अग्रहरि तथा अन्य साथी क्रांतिकारियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आप जिला चंदौली के कमालपुर गाँव के निवासी थे। 

शिवशंकर गुप्ता (Shiv Shankar Gupta)
निज़ाम स्टेट के औंरंगाबाद जिला वर्तमान जालना (महाराष्ट्र) के मोकरपहन नामक गाँव में १४ नवम्बर सन १९१८ ई। में जन्में स्व. श्री शिवशंकर गुप्ता जी अल्पआयु में ही सेवा को अंगीकार कर लिए थे, इनका पैतृक गाँव उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में स्थित अगई कुसवापुर (लालगंज के पास) हैं। उस समय निज़ाम स्टेट में स्कूल सिर्फ चौथी कक्षा तक था। पढ़ाई मराठी एवं उर्दू में होती थी, उस जमाने में शिवशंकर जी ने ९वी तक उर्दू तथा मराठी में पढाई की। निजाम के ज़ुल्मों से तंग आकर शिवशंकर जी ने गाँव के नौजवानों को संगठित कर निजाम के खिलाफ बगावत कर दी। ये लोग दिन में भूमिगत रहते थे व रात को पुलिस स्टेशन आकर मिलिट्री कैंप आकर हमला करते थे। 
शिवशंकर जी ने अपने हाथ में भारत का तिरंगा साथ लेकर राष्ट्रीय गान गाकर आह्वाहन किये-

हम वीरो की संतान, लगा दो अपनी जान।
तब नया जमाना आएगा। जब-जब दुश्मन आयेंगे, 
हम उनको मार भागाएगें। बीत गए वह दिन 
जब तुमने भगत सिंह को फांसी पर लटकाया, 
नया जमाना आएगा।

यह गान गली मोहल्ला सभी जगह फैल गया, तब निज़ाम ने इनके घरो पर कब्ज़ा कर लिया। शिवशंकर जी तभी पीपल गाँव आकर आश्रय ले लिए। 
सरदार बल्लभभाई पटेल ने जब हैदराबाद पर धावा बोलकर १९ सितम्बर १९४७ को भारत सरकार के साथ मिलकर तिरंगा झंडा हैदराबाद स्टेट पर लहराया। ऐसे वीर पुरुष महान क्रांतिकारी सेनानी स्वर्गीय श्री शिवशंकर गुप्ता जी को हम सादर नमन करते हैं। 

दीनदयाल गुप्त (DEEN DAYAL GUPTA)

परिवार एवं समाज की अविद्या व आर्थिक दशा से संघर्ष करते हुए स्व. श्री दीनदयाल गुप्त जी, नागपुर, (महारष्ट्र) क्षेत्र में अपनी जीवन नौका को राष्ट्रीय प्रवाह में खेते हुए आगे बढ़ने वाले अग्रहरि सपूत थे। राष्ट्रीय विद्यालय में अपनी शिक्षा प्राप्त कर देश में होने वाले आन्दोलनों में भी आप सक्रिय भाग लेते थे। सन १९२६ का झंडा सत्याग्रह के रूप में, और सन १९३० के सविनय अविज्ञा आन्दोलन में युद्ध मंडल के एक सर्वमान्य कर्याकर्ता के रूप में जाने गए। राष्ट्रभाषा प्रचार, हरिजन शिक्षा, अखाड़ों का संगठन तथा श्रमिक संगठन इत्यादि कार्यो के साथ वें नागपुर कांग्रेस कमिटी के विभिन्न पदों पर रहे। सन १९४० का व्यक्तिगत सत्याग्रह और सन १९४२ का भारत छोड़ो आन्दोलन संगठित करने में आपका अत्यधिक योगदान था। सन १९४५ में जेल से आने के बाद आपने व्यवसाय भी किया किन्तु जनसेवा की प्रवित्ति के कारण न कर सके तथा नागपुर कांग्रेस के सभापति बन गए। सन १९५२ में विधान सभा चुनाव में विजयी हुए। इन्हें मंत्री मंडल में भी लिया गया तथा खाद्य मंत्री बनाये गए। खाद्य के साथ ही साथ आपको आपको श्रम विभाग एवं समाज कल्याण विभाग भी सौंपा गया, जो आपके महत्व को दर्शाता हैं। सन १९५ में कनाडा में समाज कल्याण परिषद में भी आपने देश का प्रतिनिधित्व किया।

सन १९५६ में प्रदेशो की पुनर्रचना हुई। इस कारण वें विशाल बम्बई राज्य के श्रम मंत्री बने रहे और बाद में १९५७ से १९६२ तक विधान सभा के उपाध्यक्ष एवं राज्य खादी गृह उद्योग मंडल के सभापति रहे। सन १९६२ के बाद वें सत्ता की राजनीति से निवृत्त होकर खादी जन जागरण स्वास्थ्य सेवा आदि कार्यों में पूर्ण रूप से निमग्न हो गए।

गौरीराम गुप्त (अग्रहरि) (GAURIRAM GUPTA)

स्व. गौरीराम गुप्त अग्रहरि, उत्तर प्रदेश के धानी बाज़ार जिला गोरखपुर के निवासी थे।बाल्यावस्था से ही आपका जीवन संघर्ष में व्यतीत हुआ। इसी कारण आपली शिक्षा-दीक्षा भी ठीक से नहीं हो सकी और आप मिडिल परीक्षा (आठवीं) उत्तीर्ण करने के बाद आगे पढ़ न सके। श्री गुप्त जी अपने साहस, परिश्रम और कुशल व्यवहार के लिए विख्यात थे। गरीबों पर हो रहे अत्याचार का आपने डटकर सामना किया। जमींदार और लेहड़ा स्टेट (एक रियासत) के अंग्रेजों से आप सदा ही संघर्ष करते रहे। वास्तव में आप सच्चे अर्थों में गरीबो के मसीहा थे। आकस्मिक घटनाओ के समय तो आप सहायता के लिए सदैव तत्पर रहते ही थे, दैनिक जीवन में भी दीन -दुखियों की सहायता करना आपका स्वाभाव था। गाँधीवादी विचारधारा रखने वाले गुप्त जी का कांग्रेस में अटूट विश्वास था। देश की आज़ादी के लिए आप अनेको बार जेल गए। सन १९४२ में आपको अंग्रेजो द्वारा नाना प्रकार की यातनाये दी गई। घर से बेघर कर दिया गया किन्तु आपने धैर्यपूर्वक सबकुछ सहन किया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद उत्तर प्रदेश के प्रथम विधानसभा चुनाव १९५२ में कांग्रेस पार्टी की टिकट से चुनाव जीतकर विधायक बने। आप लगातार १५ वर्षो तक विधान सभा के सदस्य रहे। आपका प्रभाव विधान सभा में भी था, यही कारण हैं कि अनेक मुख्यमंत्री जैसे स्व. श्री गोविन्द बल्लभ पंत, स्व. संपूर्णा नंद, स्व. श्रीमती सुचिता कृपलानी, स्व. श्री सी.वी. गुप्त, स्व. श्री चौधरी चरण सिंह जैसे प्रख्यात राजनीतिज्ञ आपके प्रशंशक में थे। ७८ वर्ष की आयु में इनका स्वर्गवास हो गया। उस समय प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री नारायण दत्त तिवारी ने गहरा दुःख व्यक्त करते हुए कहा कि - "श्री गुप्त जी एक समर्पित राष्ट्रभक्त थे, जिन्होंने देश के आज़ादी के लिए निरंतर संघर्ष किया। उनके निधन से राष्ट्र और प्रांत को भारी क्षति हुई हैं।"

रामाधार प्रसाद "सुमन" (Ramadhar Prasad "Suman")

स्वतंत्रता संग्राम सेनानी स्व. रामाधार प्रसाद "सुमन" जी भेलाही, पूर्वी चंपारण से थे। आपको नेपाल सर्कार से भी स्वतंत्रता सेनानी का प्रमाण पत्र प्राप्त हैं। 

अग्रहरि गिरधारी लाल "आर्य" (Agrahari Girdhari Lal "Arya")

स्वतंत्रता संग्राम सेनानी स्वर्गीय श्री गिरधारी लाल "आर्य" सुपुत्र स्व। शिवराजराम अग्रहरि, का जन्म विक्रम संवत १८७६ को नौतनवा (गोरखपुर, उ.प्र.) में हुआ। सन १९४२ 'भारत छोडो आन्दोलन' में आपने सक्रियतापूर्ण भाग लिए और एक वर्ष की कारावास की सजा हुई। आप एक अच्छे कवि भी थें। 

रामप्रसाद लाल गुप्ता (Ram Prasad Lal Gupta)

स्वर्गीय रामप्रसाद लाल गुप्ता (अग्रहरि) स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों में ख्याति प्राप्त योद्धा थें, जिन्होंने दो बार लम्बी जेल यात्राएं की थी और अपने जीवन के स्वर्णिम-यौवन गलियों में घूम-घूमकर आज़ादी का अलख जागते थे। उन दिनों अपराध मने जाने वाले अपने इन्ही कृत्यों के कारण कई बार अंग्रेजो के डंडे खाते हुए जेल की यात्राएं करनी पड़ी। आपका जन्म बिहार प्रान्त के पटना जिला के बख्तियारपुर नगर के एक जमींदार परिवार में हुआ था। 

खोमारी साह (Khomari Sah)

स्व. खोमारी साह का जन्म प्रसौनीभाठा, नेपाल में हुआ। आप एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी भी रहें हैं। सन १९४२ के भारत छोडो आन्दोलन में पड़ोसी देश भारत के स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े और रक्सौल, भेलवा, सुगौली रेलवे लाइन को क्रांतिकारियों ने खाड़ फेका। आपको सजा भी हुई। आप सुप्रसिद्ध साहित्यकार, कवि एवं लेखक डॉ० (इंजी) हरिकृष्ण गुप्त अग्रहरि (BSc, P.hd, Hungry) के पिता हैं।

डॉ सुरेन्द्र नाथ अग्रहरि (Dr. Surendra Nath Agrahari)


स्वर्गीय डॉ सुरेन्द्र नाथ अग्रहरि ने स्वाधीनता संग्राम में बढ़ चढ़ कर भाग लिया। जिसके लिए इन्हें बहुत सी यातनाये झेलनी पड़ी। पहले इन्हें नैनी जेल में रखा गया था बाद में बरेली जेल भेज दिया गया। इनसे तो जेल अधीक्षक भी भय खाता था क्योंकि ये कब क्या कर दें किसी को मालूम नही होता था। जेल प्रशासन इनके लिए इतना सख्ती बरतता था जिससे इनके परिजन बहुत मशक्कत के बाद ही जेल में इनसे मिल पाते थे। फैजाबाद नगर पालिका ने इनकी स्मृति में एक रोड का नामकरण इनके नाम पर किया है।

नागों से क्या हैं अग्रहरियों का सम्बंध?


अग्रहरि समाज के अधिकांश परिवारों के कुल देवता "काले-गोर" कहे जाते हैं, इसका तात्पर्य सर्प से हैं। कहा जाता हैं कि महाराजा अग्रसेन की दो रानियाँ थी, एक राज कन्या थी, दूजी नाग कन्या। सत्यनारायण गुप्त अग्रहरि जी अपनी पुस्तक हम कौन हैं: अग्रहरि समाज का प्रमाणिक इतिहास में लिखते हैं, "नाग कन्या से जो संतान हुई वो अग्रहरि कहलाई, और दूसरी रानी से जो संतान हुई, वो राजवंशी कहलाई।"

हमारे पितामह अग्रोहा नरेश महाराज अग्रसेन का विवाह नाग वंश की कन्या राजकुमारी माधवी से हुआ था। हम सभी महाराजा अग्रसेन की वंशज हैं, इस प्रकार हमारा नाग वंश से भी सम्बन्ध हुआ।
आज भी अग्रहरि समुदाय व अग्रवंश की अन्य उपजातिय शाखाओं के अधिकांश परिवारों कुल देवता 'काले-गोरे' है, जिसका तात्पर्य नाग से है। 

क्या नाग से तात्पर्य सर्प से हैं? या नाग वंश से? एक मानव का एक नागिन से विवाह होना विश्वसनीय नही है। नाग से तात्पर्य नाग नामक वंश से हैं, जो मानवों का हैं। 

अति प्राचीन काल में जब मानव पूर्ण रूप से असभ्य था। उस समय मानव की आदिम जातियां किसी वृक्ष, प्राकृतिक वस्तु, पशु की उपासना करती थी और अपने को उसी के नाम से प्रकट करती थी। हमारे इतिहास पूराण में जो पशु, वृक्ष, अधिकांश बाते करते दिखाए गये हैं जैसे गरुण, वानर, नाग, वृक्ष, हंस, मत्स्य, शुक, काग आदि इत्यादि वें वास्तव में पशु-पक्षी नहीं थे। वें मानव ही थे जो अपने टॉटेम के नाम पर पुकारी जाती थी। 
जनमेजय के नागयज्ञ में भी नाग से तात्पर्य नाग वंश से हैं। अग्रोत्कान्वय के पृष्ठ २१ पर उल्लेखित किया गया हैं कि  "जनमेजय के नाग यज्ञ के समय नागों (वैश्यों) का सामूहिक रूप से ह्रास हुआ। उसका प्रभाव भी अग्रोहा के अभ्युदय को धुल में मिलाने वाला सिद्ध हुआ। 

 नागराज समाह्रेयो गौड़ राजा भविष्यति,अन्ते तस्य नृपे तिष्ठं ध्यांवर्नत द्रिशौ।
वैश्येः परिवृता वैश्यं नागा ह्रेयो समन्ततः॥
(मंंजु श्रीमूल कल्प, पृष्ठ ५५-५६)


मंजू श्रीमूूूल कल्प मेंं नागवंश का वृत्तान्त दिया गया हैं और नागो को वैश्य या वैश्यनाग लिखा गया हैं।

श्री सत्यकेतु विद्यालंकार जी ने भी इसी मत की पुष्टि अग्रवाल जाति के प्राचीन इतिहास नामक पुस्तक में की हैं। 
प्रत्येक टॉटेम अपने इष्ट पशु-पक्षियों के नामों पर अपने वंश का नाम रखते थे। उनसे सम्बंधित चिन्हों का प्रयोग करते थे। उनकी पूजा करते थे। वानर को इष्ट मानने वाली आदिम जाति वानरों की खाल का प्रयोग वस्त्रो के रूप में करती थी। उस खाल की निर्जीव पूछ आदि अंगो का वह सम्मान करती थी। नाग, गरुड़ आदि जाति के लोग अपने मुकुट आदि आभूषण इन्हीं चिन्हों विशेष में अंकित करते थे। 

यह सोचना कि नाग वास्तव में प्राचीन काल में मनुष्य नहीं सांप थे गलत है, क्योंकि प्रत्येक जगह के नाग मनुष्याकरण धारण कर लेना वर्णित हैं। और नागों की संस्कृत का भी आभास उसमें प्राप्त होता हैं। 
अग्रहरि समाज के सामान ही अग्रवालों की मातृका 'नाग' (सर्प) ही मानी जाती हैं। आज भी विवाह के अवसर पर वधु को चुनरी ओढाने की प्रथा प्रचलित हैं। 'चुनरी' सर्प की केचुली का प्रतीक मात्र हैं। अप्रत्यक्ष रूप से हम हर वधु को नागकन्या बना कर विवाह करते हैं। 

निष्कर्ष: 
प्राचीन काल में संभवतः हम टॉटेम थे, जिनका नाग वंश से सम्बंध था। इसीलिए हम काले-गोरे के रूप में आज भी नाग देवता की पूजा करते हैं। नाग वंश और नाग/सर्प में अंतर हैं। नाग वंश एक मानव समुदाय था, जो नागो पर आस्था रखता था, ना कि वें खुद नाग या साँप थे। 

शब्दार्थ: 
१) टॉटेम: एक विशेष समुदाय/समाज जो किसी प्राकृतिक वस्तु अथवा पशु, पक्षी अथवा जानवर में अध्यात्मिक/दैवीय महत्व देखता हैं और उसे मानता हैं और उसे (जानवर,पशु,पक्षी को) अपने समुदाय के प्रतीक अथवा कुलचिन्ह अथवा कुलदेवता के रूप में अपनाता हैं।
२) मातृका: हिन्दुओं के शाक्त सम्प्रदाय में मातृका का वर्णन महाशक्ति की सककारी सात देवियों के लिये हुआ है। ये देवियाँ- ब्रह्माणी, वैष्णवी, माहेश्वरी, इन्द्राणी, कौमारी, वाराही और चामुण्डा हैं। इन्हें 'सप्तमातृका' या 'मातर' भी कहते हैं।

आप सभी को नागपंचमी की हार्दिक शुभकामनाये।