अग्रहरि समाज की होनहार बेटी बनी जज, पीसीएस जे 2016 में हुआ सोनम गुप्ता का चयन


उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले के प्रतिष्ठित उद्यमी एवं ओबरा विधान सभा से पूर्व बसपा प्रत्याशी सुभाष अग्रहरि की बेटी सोनम गुप्ता ने उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग की पीसीएस जे 2016 परीक्षा उत्तीर्ण करके जज बन गयी है। यह उनके कड़े परिश्रम का परिणाम है। परीक्षा उत्तीर्ण होने पर सोनम बेहद खुश है। शुक्रवार 13 अक्टूबर 2017 को देर शाम उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग ने UPPCS-J 2016 का अंतिम परिणाम घोषित कर दिया।  यूपीपीसीएस जे की लिखित परीक्षा और साक्षात्कार के बाद 218 पदों का चयन परिणाम घोषित हुआ है, जिनमें सोनम गुप्ता ने 101 वाँ स्थान पाकर अग्रहरि समाज का नाम रोशन किया है।





बता दें कि सोनम ओबरा स्थित सेक्रेट हार्ट कान्वेंट स्कूल की छात्रा रही है।  जानेमाने कारोबारी व समाजसेवी सुभाष अग्रहरि की सबसे छोटी पुत्री है। साल 2015 इनकी बड़ी बेटी श्वेता गुप्ता (IES Officer) का चयन भारतीय अभियांत्रिकी सेवा में हुआ था।  इस वर्ष सोनम गुप्ता ने यूपी पीसीएस जे की प्री, मेन्स के बाद इंटरव्यू परिणाम में सफलता हासिल कर जज बनने का सपना पूरा कर पूरे अग्रहरि वैश्य समाज का मान बढ़ाया है। कड़ी मेहनत कर सफलता हासिल करने के लिए नियमित पढ़ाई पर ध्यान लगाकर सोनम ने अपने माता-पिता के सपने को साकार किया है। 


सुभाष अग्रहरि के दो बड़ी बेटियो में एक एमबीबीएस डॉक्टर है तो एक आई०ई०एस० अधिकारी है। अब तीसरी बेटी भी जज बन गयी। इस सफलता पर माता पिता, क्षेत्रवासियों व स्वजातीय बंधुओ सहित परिजनों ने ख़ुशी जाहिर की है।

हम आशा करते हूं कि कु. सोनम गुप्ता इसी प्रकार भविष्य मे अग्रहरि समाज एवं अपने माता पिता का नाम रोशन करेंगी और अपने अभीष्ट लक्ष्य को यथा समय प्राप्त करेंगी। आज हम सभी को गर्व करना चाहिए कि हमारे समाज के युवा शिक्षा, खेल एवं राजनीति व अन्य क्षेत्रों  में नित नई ऊंचाइयों की ओर बढ़ रहे हैं जो समाज के लिए गौरव की बात हैं।




डॉ० रिंकी अग्रहरि का UPPSC में चयन, बनी चिकित्सा अधिकारी


कहते है शिक्षा में ही विकास का मूल व्याप्त है। शिक्षा एक ऐसा यंत्र है, जो सभी को जीवन में आगे बढ़ने और कामयाब होने के साथ ही जीवन में कठिनाइयों और चुनौतियों पर जीत प्राप्त करने की क्षमता देती है। इसे बहुत अच्छे तरीके से साबित किया है हमारे अग्रहरि समाज की डॉ० रिंकी अग्रहरि ने, जिन्होंने तमाम चुनौतियो का सामना करते हुए व खुद के अथक परिश्रम के बूते  सफलता का परचम लहरा दिया है।



उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जनपद अंतर्गत कादीपुर तहसील के बेलवाई बाज़ार मे छेदीलाल अग्रहरि और श्रीमती गीता देवी के घर पुत्री के रूप में रिंकी अग्रहरि का जन्म हुआ।  

डॉ० रिंकी अग्रहरि का उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग (UPPSC) द्वारा संचालित प्रतियोगी परीक्षा उत्तीर्ण कर एलोपैथिक चिकित्सा अधिकारी बन गई है। उनके अफसर के पद पर चयन होने पर उनके परिवार व पूरे इलाके मे खुशी का माहौल है। डॉ० रिंकी की प्रारंभिक शिक्षा बेहद ही सामान्य एवं ग्रामीण परिवेश हुआ। गाँव के ही प्राइमरी स्कूल से उनकी शिक्षा का सफ़र शरू हुआ था। साल 2009 मे MBBS के लिए कानपूर के गणेश शंकर विद्यार्थी मेडिकल कॉलेज मे उनका चयन हुआ और फिलहाल वें लखनऊ के किंग जॉर्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय से MD की डिग्री कर रही है।

रिंकी अपनी कामयाबी का श्रेय अपने माता-पिता और अध्यापकों को देती है। उनकी प्रेरणा की श्रोत उनकी बड़ी बहन विनीता अग्रहरि है, जो वर्तमान में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय अंतर्गत बाल विकास परियोजना अधिकारी के पद पर सेवा दें रही है। 
अग्रहरि समाज डॉ० रिकी अग्रहरि (एलोपैथिक चिकित्सा अधिकारी) व उनके परिवार की उज्जवल भविष्य की कामना करता है।  


स्वाधीनता संग्राम में रहा अग्रहरियों का महत्वपूर्ण योगदान


देश की गुलामी से मुक्त होने की दृढ इच्छा शक्ति सर्वप्रथम विद्रोह के रूप में वर्ष १८५७ में स्वतंत्रता की चेतना के साथ अभिव्यक्त हुई जो कि लगभग ९० वर्षो के निरंतर संघर्ष के पश्चात १५ अगस्त १९४७ में स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ पूरी हुई। स्वाधीनता के इस आन्दोलन में अनेक क्रांतिकारियों और स्वतंत्रता सेनानियों का महत्वपूर्ण योगदान रहा। एक ओर नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, खुदीराम बोस, जयप्रकाश नारायण, महात्मा गाँधी, विनोबा भावे, जवाहरलाल नेहरु, लोकमान्य तिलक, सरदार वल्लभभाई पटेल आदि महापुरुषों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई वहीं दूसरी ओर हमारे अग्रहरि वैश्य समाज के रणबांकुरों ने भी स्वाधीनता के आन्दोलन में पीछे नही हटे और देश की आज़ादी के इस महासंघर्ष में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। देश की आजादी में अग्रहरि समाज का योगदान अमूल्य रहा है। इसे कोई भी कभी भुला नहीं सकता। आज हम अपने समाज के ऐसे ही वीर महापुरुषों के बारे में जानेंगे, जिन पर समाज को फक्र हैं।

मिट्ठूलाल अग्रहरि (Mitthulal Agrahari)

स्वतंत्रता सेनानी स्वर्गीय श्री मिट्ठूलाल अग्रहरि जी ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ जम कर हिस्सा लिया था। दिनांक ३ सितंबर १९४२ को मिट्ठूलाल जी को गिरफ्तार कर उनके विरूद्ध ३८ तथा ३५ (४) डी.आई.आर. के तहत मुकदमा पंजीकृत कर कारावास भेज दिया गया था। इस दौरान आप ६ महीने तक जेल मे रहे। जेल से छूटने के बाद भी श्री अग्रहरि ने देश को स्वतंत्रता दिलाने के लिए संघर्षरत रहे। १०५ वर्षीय वयोवृद्ध सेनानी मिट्ठूलाल अग्रहरि को ५ अक्टूबर २००९ को ह्रदय की गति रुकने (Cordial attack) के कारण मृत्यु हो गई। अश्रुपूरित नयनो के बीच भारत माता के इस महान सपूत श्री मिट्ठूलाल अग्रहरि को उत्तर प्रदेश प्रशासन ने गार्ड ऑफ हॉनर सम्मान के साथ अंतिम विदाई दी।

धर्मनाथ अग्रहरि (Dharmanath Agrahari)

स्वतंत्रता संग्राम सेनानी स्वर्गीय श्री धर्मनाथ अग्रहरि जी बिहार प्रान्त से सिवान जनपद के चैनपुर, महावीर चौक के निवासीथें। आपने सन १९४२ में राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान तत्कालीन छपरा जिलें के अंग्रेज दुश्मनो के छक्के छुड़ाने वाले रणबांकुरो में से एक थें। आपके पिता का नाम स्वर्गीय सरयू प्रसाद अग्रहरि था। ३ अक्टूबर २००८ को भारत माँ के वीर सपूत धर्मनाथ अग्रहरि जी का देहावसान हो गया। अंतिम संस्कार सरयू नदी के पावन तट पर हुआ।

हरिनारायण अग्रहरि (Hari Narayan Agrahari)

क्रांतिकारी स्वर्गीय श्री हरिनारायण अग्रहरि को बनारस के प्रसिद्ध धानापुर थाना काण्ड के लिए जाना जाता हैं। श्री अग्रहरि ने सन १९४२ में भारत छोडो आन्दोलन में भाग लेते हुए क्रांतिकारी साथियों के साथ धानापुर पुलिस थाना को तहस नहस कर दिया। क्रांतिकारियों ने पुलिस अधिकारियो को मारने के बाद उनके मृत शरीर को गंगा में फेक दिया। और सरकारी ईमारत में भारत का झंडा लहराया। वाराणसी के इस प्रसिद्ध धानापुर थाना कांड में स्व. हरिनारायण अग्रहरि तथा अन्य साथी क्रांतिकारियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आप जिला चंदौली के कमालपुर गाँव के निवासी थे। 

शिवशंकर गुप्ता (Shiv Shankar Gupta)
निज़ाम स्टेट के औंरंगाबाद जिला वर्तमान जालना (महाराष्ट्र) के मोकरपहन नामक गाँव में १४ नवम्बर सन १९१८ ई। में जन्में स्व. श्री शिवशंकर गुप्ता जी अल्पआयु में ही सेवा को अंगीकार कर लिए थे, इनका पैतृक गाँव उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में स्थित अगई कुसवापुर (लालगंज के पास) हैं। उस समय निज़ाम स्टेट में स्कूल सिर्फ चौथी कक्षा तक था। पढ़ाई मराठी एवं उर्दू में होती थी, उस जमाने में शिवशंकर जी ने ९वी तक उर्दू तथा मराठी में पढाई की। निजाम के ज़ुल्मों से तंग आकर शिवशंकर जी ने गाँव के नौजवानों को संगठित कर निजाम के खिलाफ बगावत कर दी। ये लोग दिन में भूमिगत रहते थे व रात को पुलिस स्टेशन आकर मिलिट्री कैंप आकर हमला करते थे। 
शिवशंकर जी ने अपने हाथ में भारत का तिरंगा साथ लेकर राष्ट्रीय गान गाकर आह्वाहन किये-

हम वीरो की संतान, लगा दो अपनी जान।
तब नया जमाना आएगा। जब-जब दुश्मन आयेंगे, 
हम उनको मार भागाएगें। बीत गए वह दिन 
जब तुमने भगत सिंह को फांसी पर लटकाया, 
नया जमाना आएगा।

यह गान गली मोहल्ला सभी जगह फैल गया, तब निज़ाम ने इनके घरो पर कब्ज़ा कर लिया। शिवशंकर जी तभी पीपल गाँव आकर आश्रय ले लिए। 
सरदार बल्लभभाई पटेल ने जब हैदराबाद पर धावा बोलकर १९ सितम्बर १९४७ को भारत सरकार के साथ मिलकर तिरंगा झंडा हैदराबाद स्टेट पर लहराया। ऐसे वीर पुरुष महान क्रांतिकारी सेनानी स्वर्गीय श्री शिवशंकर गुप्ता जी को हम सादर नमन करते हैं। 

दीनदयाल गुप्त (DEEN DAYAL GUPTA)

परिवार एवं समाज की अविद्या व आर्थिक दशा से संघर्ष करते हुए स्व. श्री दीनदयाल गुप्त जी, नागपुर, (महारष्ट्र) क्षेत्र में अपनी जीवन नौका को राष्ट्रीय प्रवाह में खेते हुए आगे बढ़ने वाले अग्रहरि सपूत थे। राष्ट्रीय विद्यालय में अपनी शिक्षा प्राप्त कर देश में होने वाले आन्दोलनों में भी आप सक्रिय भाग लेते थे। सन १९२६ का झंडा सत्याग्रह के रूप में, और सन १९३० के सविनय अविज्ञा आन्दोलन में युद्ध मंडल के एक सर्वमान्य कर्याकर्ता के रूप में जाने गए। राष्ट्रभाषा प्रचार, हरिजन शिक्षा, अखाड़ों का संगठन तथा श्रमिक संगठन इत्यादि कार्यो के साथ वें नागपुर कांग्रेस कमिटी के विभिन्न पदों पर रहे। सन १९४० का व्यक्तिगत सत्याग्रह और सन १९४२ का भारत छोड़ो आन्दोलन संगठित करने में आपका अत्यधिक योगदान था। सन १९४५ में जेल से आने के बाद आपने व्यवसाय भी किया किन्तु जनसेवा की प्रवित्ति के कारण न कर सके तथा नागपुर कांग्रेस के सभापति बन गए। सन १९५२ में विधान सभा चुनाव में विजयी हुए। इन्हें मंत्री मंडल में भी लिया गया तथा खाद्य मंत्री बनाये गए। खाद्य के साथ ही साथ आपको आपको श्रम विभाग एवं समाज कल्याण विभाग भी सौंपा गया, जो आपके महत्व को दर्शाता हैं। सन १९५ में कनाडा में समाज कल्याण परिषद में भी आपने देश का प्रतिनिधित्व किया।

सन १९५६ में प्रदेशो की पुनर्रचना हुई। इस कारण वें विशाल बम्बई राज्य के श्रम मंत्री बने रहे और बाद में १९५७ से १९६२ तक विधान सभा के उपाध्यक्ष एवं राज्य खादी गृह उद्योग मंडल के सभापति रहे। सन १९६२ के बाद वें सत्ता की राजनीति से निवृत्त होकर खादी जन जागरण स्वास्थ्य सेवा आदि कार्यों में पूर्ण रूप से निमग्न हो गए।

गौरीराम गुप्त (अग्रहरि) (GAURIRAM GUPTA)

स्व. गौरीराम गुप्त अग्रहरि, उत्तर प्रदेश के धानी बाज़ार जिला गोरखपुर के निवासी थे।बाल्यावस्था से ही आपका जीवन संघर्ष में व्यतीत हुआ। इसी कारण आपली शिक्षा-दीक्षा भी ठीक से नहीं हो सकी और आप मिडिल परीक्षा (आठवीं) उत्तीर्ण करने के बाद आगे पढ़ न सके। श्री गुप्त जी अपने साहस, परिश्रम और कुशल व्यवहार के लिए विख्यात थे। गरीबों पर हो रहे अत्याचार का आपने डटकर सामना किया। जमींदार और लेहड़ा स्टेट (एक रियासत) के अंग्रेजों से आप सदा ही संघर्ष करते रहे। वास्तव में आप सच्चे अर्थों में गरीबो के मसीहा थे। आकस्मिक घटनाओ के समय तो आप सहायता के लिए सदैव तत्पर रहते ही थे, दैनिक जीवन में भी दीन -दुखियों की सहायता करना आपका स्वाभाव था। गाँधीवादी विचारधारा रखने वाले गुप्त जी का कांग्रेस में अटूट विश्वास था। देश की आज़ादी के लिए आप अनेको बार जेल गए। सन १९४२ में आपको अंग्रेजो द्वारा नाना प्रकार की यातनाये दी गई। घर से बेघर कर दिया गया किन्तु आपने धैर्यपूर्वक सबकुछ सहन किया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद उत्तर प्रदेश के प्रथम विधानसभा चुनाव १९५२ में कांग्रेस पार्टी की टिकट से चुनाव जीतकर विधायक बने। आप लगातार १५ वर्षो तक विधान सभा के सदस्य रहे। आपका प्रभाव विधान सभा में भी था, यही कारण हैं कि अनेक मुख्यमंत्री जैसे स्व. श्री गोविन्द बल्लभ पंत, स्व. संपूर्णा नंद, स्व. श्रीमती सुचिता कृपलानी, स्व. श्री सी.वी. गुप्त, स्व. श्री चौधरी चरण सिंह जैसे प्रख्यात राजनीतिज्ञ आपके प्रशंशक में थे। ७८ वर्ष की आयु में इनका स्वर्गवास हो गया। उस समय प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री नारायण दत्त तिवारी ने गहरा दुःख व्यक्त करते हुए कहा कि - "श्री गुप्त जी एक समर्पित राष्ट्रभक्त थे, जिन्होंने देश के आज़ादी के लिए निरंतर संघर्ष किया। उनके निधन से राष्ट्र और प्रांत को भारी क्षति हुई हैं।"

रामाधार प्रसाद "सुमन" (Ramadhar Prasad "Suman")

स्वतंत्रता संग्राम सेनानी स्व. रामाधार प्रसाद "सुमन" जी भेलाही, पूर्वी चंपारण से थे। आपको नेपाल सर्कार से भी स्वतंत्रता सेनानी का प्रमाण पत्र प्राप्त हैं। 

अग्रहरि गिरधारी लाल "आर्य" (Agrahari Girdhari Lal "Arya")

स्वतंत्रता संग्राम सेनानी स्वर्गीय श्री गिरधारी लाल "आर्य" सुपुत्र स्व। शिवराजराम अग्रहरि, का जन्म विक्रम संवत १८७६ को नौतनवा (गोरखपुर, उ.प्र.) में हुआ। सन १९४२ 'भारत छोडो आन्दोलन' में आपने सक्रियतापूर्ण भाग लिए और एक वर्ष की कारावास की सजा हुई। आप एक अच्छे कवि भी थें। 

रामप्रसाद लाल गुप्ता (Ram Prasad Lal Gupta)

स्वर्गीय रामप्रसाद लाल गुप्ता (अग्रहरि) स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों में ख्याति प्राप्त योद्धा थें, जिन्होंने दो बार लम्बी जेल यात्राएं की थी और अपने जीवन के स्वर्णिम-यौवन गलियों में घूम-घूमकर आज़ादी का अलख जागते थे। उन दिनों अपराध मने जाने वाले अपने इन्ही कृत्यों के कारण कई बार अंग्रेजो के डंडे खाते हुए जेल की यात्राएं करनी पड़ी। आपका जन्म बिहार प्रान्त के पटना जिला के बख्तियारपुर नगर के एक जमींदार परिवार में हुआ था। 

खोमारी साह (Khomari Sah)

स्व. खोमारी साह का जन्म प्रसौनीभाठा, नेपाल में हुआ। आप एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी भी रहें हैं। सन १९४२ के भारत छोडो आन्दोलन में पड़ोसी देश भारत के स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े और रक्सौल, भेलवा, सुगौली रेलवे लाइन को क्रांतिकारियों ने खाड़ फेका। आपको सजा भी हुई। आप सुप्रसिद्ध साहित्यकार, कवि एवं लेखक डॉ० (इंजी) हरिकृष्ण गुप्त अग्रहरि (BSc, P.hd, Hungry) के पिता हैं।

डॉ सुरेन्द्र नाथ अग्रहरि (Dr. Surendra Nath Agrahari)


स्वर्गीय डॉ सुरेन्द्र नाथ अग्रहरि ने स्वाधीनता संग्राम में बढ़ चढ़ कर भाग लिया। जिसके लिए इन्हें बहुत सी यातनाये झेलनी पड़ी। पहले इन्हें नैनी जेल में रखा गया था बाद में बरेली जेल भेज दिया गया। इनसे तो जेल अधीक्षक भी भय खाता था क्योंकि ये कब क्या कर दें किसी को मालूम नही होता था। जेल प्रशासन इनके लिए इतना सख्ती बरतता था जिससे इनके परिजन बहुत मशक्कत के बाद ही जेल में इनसे मिल पाते थे। फैजाबाद नगर पालिका ने इनकी स्मृति में एक रोड का नामकरण इनके नाम पर किया है।

नागों से क्या हैं अग्रहरियों का सम्बंध?


अग्रहरि समाज के अधिकांश परिवारों के कुल देवता "काले-गोर" कहे जाते हैं, इसका तात्पर्य सर्प से हैं। कहा जाता हैं कि महाराजा अग्रसेन की दो रानियाँ थी, एक राज कन्या थी, दूजी नाग कन्या। सत्यनारायण गुप्त अग्रहरि जी अपनी पुस्तक हम कौन हैं: अग्रहरि समाज का प्रमाणिक इतिहास में लिखते हैं, "नाग कन्या से जो संतान हुई वो अग्रहरि कहलाई, और दूसरी रानी से जो संतान हुई, वो राजवंशी कहलाई।"

हमारे पितामह अग्रोहा नरेश महाराज अग्रसेन का विवाह नाग वंश की कन्या राजकुमारी माधवी से हुआ था। हम सभी महाराजा अग्रसेन की वंशज हैं, इस प्रकार हमारा नाग वंश से भी सम्बन्ध हुआ।
आज भी अग्रहरि समुदाय व अग्रवंश की अन्य उपजातिय शाखाओं के अधिकांश परिवारों कुल देवता 'काले-गोरे' है, जिसका तात्पर्य नाग से है। 

क्या नाग से तात्पर्य सर्प से हैं? या नाग वंश से? एक मानव का एक नागिन से विवाह होना विश्वसनीय नही है। नाग से तात्पर्य नाग नामक वंश से हैं, जो मानवों का हैं। 

अति प्राचीन काल में जब मानव पूर्ण रूप से असभ्य था। उस समय मानव की आदिम जातियां किसी वृक्ष, प्राकृतिक वस्तु, पशु की उपासना करती थी और अपने को उसी के नाम से प्रकट करती थी। हमारे इतिहास पूराण में जो पशु, वृक्ष, अधिकांश बाते करते दिखाए गये हैं जैसे गरुण, वानर, नाग, वृक्ष, हंस, मत्स्य, शुक, काग आदि इत्यादि वें वास्तव में पशु-पक्षी नहीं थे। वें मानव ही थे जो अपने टॉटेम के नाम पर पुकारी जाती थी। 
जनमेजय के नागयज्ञ में भी नाग से तात्पर्य नाग वंश से हैं। अग्रोत्कान्वय के पृष्ठ २१ पर उल्लेखित किया गया हैं कि  "जनमेजय के नाग यज्ञ के समय नागों (वैश्यों) का सामूहिक रूप से ह्रास हुआ। उसका प्रभाव भी अग्रोहा के अभ्युदय को धुल में मिलाने वाला सिद्ध हुआ। 

 नागराज समाह्रेयो गौड़ राजा भविष्यति,अन्ते तस्य नृपे तिष्ठं ध्यांवर्नत द्रिशौ।
वैश्येः परिवृता वैश्यं नागा ह्रेयो समन्ततः॥
(मंंजु श्रीमूल कल्प, पृष्ठ ५५-५६)


मंजू श्रीमूूूल कल्प मेंं नागवंश का वृत्तान्त दिया गया हैं और नागो को वैश्य या वैश्यनाग लिखा गया हैं।

श्री सत्यकेतु विद्यालंकार जी ने भी इसी मत की पुष्टि अग्रवाल जाति के प्राचीन इतिहास नामक पुस्तक में की हैं। 
प्रत्येक टॉटेम अपने इष्ट पशु-पक्षियों के नामों पर अपने वंश का नाम रखते थे। उनसे सम्बंधित चिन्हों का प्रयोग करते थे। उनकी पूजा करते थे। वानर को इष्ट मानने वाली आदिम जाति वानरों की खाल का प्रयोग वस्त्रो के रूप में करती थी। उस खाल की निर्जीव पूछ आदि अंगो का वह सम्मान करती थी। नाग, गरुड़ आदि जाति के लोग अपने मुकुट आदि आभूषण इन्हीं चिन्हों विशेष में अंकित करते थे। 

यह सोचना कि नाग वास्तव में प्राचीन काल में मनुष्य नहीं सांप थे गलत है, क्योंकि प्रत्येक जगह के नाग मनुष्याकरण धारण कर लेना वर्णित हैं। और नागों की संस्कृत का भी आभास उसमें प्राप्त होता हैं। 
अग्रहरि समाज के सामान ही अग्रवालों की मातृका 'नाग' (सर्प) ही मानी जाती हैं। आज भी विवाह के अवसर पर वधु को चुनरी ओढाने की प्रथा प्रचलित हैं। 'चुनरी' सर्प की केचुली का प्रतीक मात्र हैं। अप्रत्यक्ष रूप से हम हर वधु को नागकन्या बना कर विवाह करते हैं। 

निष्कर्ष: 
प्राचीन काल में संभवतः हम टॉटेम थे, जिनका नाग वंश से सम्बंध था। इसीलिए हम काले-गोरे के रूप में आज भी नाग देवता की पूजा करते हैं। नाग वंश और नाग/सर्प में अंतर हैं। नाग वंश एक मानव समुदाय था, जो नागो पर आस्था रखता था, ना कि वें खुद नाग या साँप थे। 

शब्दार्थ: 
१) टॉटेम: एक विशेष समुदाय/समाज जो किसी प्राकृतिक वस्तु अथवा पशु, पक्षी अथवा जानवर में अध्यात्मिक/दैवीय महत्व देखता हैं और उसे मानता हैं और उसे (जानवर,पशु,पक्षी को) अपने समुदाय के प्रतीक अथवा कुलचिन्ह अथवा कुलदेवता के रूप में अपनाता हैं।
२) मातृका: हिन्दुओं के शाक्त सम्प्रदाय में मातृका का वर्णन महाशक्ति की सककारी सात देवियों के लिये हुआ है। ये देवियाँ- ब्रह्माणी, वैष्णवी, माहेश्वरी, इन्द्राणी, कौमारी, वाराही और चामुण्डा हैं। इन्हें 'सप्तमातृका' या 'मातर' भी कहते हैं।

आप सभी को नागपंचमी की हार्दिक शुभकामनाये।

अग्रहरि जाति का संक्षिप परिचय

१२वीं शताब्दी सन ११९४ इसवी मे वैश्य शिरोमणि महाराजा अग्रसेन की खुशहाल नगरी अग्रोहा मे एक विदेशी मुग़ल आक्रांता शहाबुद्दीन गौरी ने अपनी सेना के साथ अग्रोहा प्रदेश पर मध्य रात्रि को में आक्रमण कर दिया। आक्रमण भी उस समय किया जिस वक्त पूरी नगरी निद्रा में सोया पड़ा था।  इस घटना मे कुछ अग्रसेन वंशज इस युद्ध मे लोहा लेते हुऐ शहीद हो गये और कुछ को कैदी बना लिया गया और कुछ को धन व जागीर का लालच देकर अपनी तरफ मिला लिया गया।

 १) अग्रोहा धाम २) अग्रोहा का खंडहर ३)  गंगा नदी के तट पर स्थित अग्रहरि उद्गमस्थल डलमऊ
पितामह महाराजा अग्रसेन एवं माता माधवी, वैश्यों की कुलदेवी महालक्ष्मी और नाग देवता 

इस प्रकार से अग्रोहा गणराज्य पर मुगल सम्राज्य स्थापित हो गया। तत्पश्चात मुसलमानो के दुर्व्यवहार और दमन  से खिन्न होकर वहा बसे लाखो अग्र वैश्य अन्य प्रदेशो की और पलायन कर दिये। इसी क्रम में मे अग्रसेन वंशजो का ९४वें परिवार का एक जत्था अग्रोहा छोड युमुना नदी पार कते हुए वर्तमान के उत्तर प्रदेश प्रान्त मे गंगा किनारे बसे  डलमऊ नगर में डेरा डाल कर यहीं बस गया।  शुरुआत से आज तक यही डलमऊ नगरी इनका केन्द्र बिन्दु रहा। डलमऊ के निकट ही हमारे पूर्वजो द्वारा बसाया गया बैसवारा (संभवतः वैश्यवाडा, जो कालांतर में बैसवारा हो गया हों) एक नगर है, जहाँ पर आज भी ज्यादा संख्या मे अग्रहरि रहते है। किन्तु वर्तमान में ये देश के हर कोने में फ़ैल गये हैं। अनुमानतः हमारे समाज की जनसंख्या करीब 30-40 लाख के आसपास है। 

अग्रहरि एक अदभुत योद्धा, पराक्रमी, और तेजस्वी व धार्मिक प्रब्रत्ति के होते है।  आज भी यज्ञ करते है और जनेऊ धारण करते है।  एक स्त्री से विवाह करते हैं। वैश्य धर्म का पालन करते हुए मांस-मदिरा से दूर रहते है व प्राचीन मान्यताओ से जुडे हुऐ है। यह लोग आज भी श्रवण माह मे नाग देवता की पूजा करते है। नागपंचमी को पर्व की तरह मनाते है एवं घरो मे नागदेवता का चित्र बनाते है। शादी-ब्याह और शुभ कार्यो मे मोर मौरी और नाग-नागिन की पूजन करते है। इनका मुख्य कार्य क्रषि और व्यापार है क्योकि पितामह महाराजा अग्रसेन का सीधा सम्बन्ध नागवंश से रहा है। व्यापारीगण दीपावली के दिन माता लक्ष्मी और गणेश जी की पूजा-अर्चन करते हैं। बड़े-पुरुष, काले-गोरे, गाजी मियाँ आदि भी कुलदेवता के रूप में पूजे जाते हैं।


अग्रहरि महाराजा अग्रसेन को पितामह मानते हैं और उन्हें आराध्य की तरह पूजते हैं। इन्होने १२वीं शताब्दी की त्रासदी मे मुगलो से किसी तरह का समझौता नही किया परिणामस्वरूप इन्हे सबसे ज्यादा नुकसान उठाना पडा।  
संभवतः तभी इन्हे अपना मूल गोत्र और नाम छिपाकर रहना पडा क्योकि मुगलो ने इनका आखिरी छोर तक पीछा किया था आज भी अग्रहरि अपनी आन, बान और शान के लिये जाना जाता है। कुलदेवी महालक्ष्मी का वरदान और पितामह अग्रसेन का आशीष ही कहेंगे कि एक अग्रहरि गरीब हो सकता हैं, लेकिन कभी वह भूखा नहीं मरता। वह अपने स्वाभिमान से कभी समझौता नहीं करता। 

अग्रहरियों का एक समुदाय ऐसा भी जो हैं सिख। कौन हैं ये अग्रहरि सिख?

हिंदुत्व के रक्षक - सिख के नौवें गुरु, गुरु तेग बहादुर सिंह जी 
जय अग्रसेन। हम सभी में शायद हैं ही सभी इस बात से अभिज्ञ हो कि अग्रहरियों का एक ऐसा भी समुदाय हैं जो सिख धर्म को मानते हैं। जी हाँ चौकिये नहीं, बिलकुल सही सुना आपने। इन्हें अग्रहरि सिख कहते हैं। स्वयं को हमारी ही भांति महाराजा अग्रसेन का संतान बताने वाले अग्रहरि सिखों की क्या दास्तान हैं, इनका क्या इतिहास रहा हैं। कैसे अग्रहरियो का एक कुनबा सिख धर्म अपना लिया, इसकी पूरी कहानी हम समझने की कोशिश करते हैं।

मूल रूप से अग्रहरि सिख बिहार, झारखण्ड और पश्चिम बंगाल से आते हैं, क्योंकि सदियों से अग्रहरि सिख बिहार में रहते थे। इस कारण इन्हें बिहारी सिख भी कहते हैं। हालाकि वर्तमान में ये महज बिहार, झारखण्ड या पश्चिम बंगाल तक ही सिमित नही रहे, देश के अन्य कई स्थानों की और रोजगार या अन्य कारणों से फ़ैल चुके हैं।

क्या हैं इनका इतिहास 
इनके इतिहास के बारे में बताया जाता हैं कि मुग़ल शासन में जब हिन्दुओ को जबरन मुसलमान बनाया जा रहा था तब उन्हने अपने धर्म और बहु-बेटियों की रक्षा के लिए खालसा अपनाकर तलवार उठाया था। इसी काल में कई अग्रवालों ने हार मानकर इस्लाम कबुल किया, लेकिन स्वाभिमानियो के इस कुनबे को मुसलमान होना मंजूर नहीं था। वे सभी नौवे गुरु तेग बहादुर सिंह जी की उपस्तिथि में खालसा धारण कर सिख धर्म में परिवर्तित हुए और अपने धर्म की रक्षा के लिए सतत संघर्षरत रहे। 


इतिहासकारों के मत 
इनके सम्बन्ध में जानकारी जुटाने के दौरान ऑनलाइन ही हमें एक श्रोत मिला जिसमे यह उल्लेख किया गया हैं कि सिख अग्रहरि, गुरु तेग बहादर की असम यात्रा के समय से अहोम (अहोम एक असामी समुदाय जो ताई जाति के वंशज हैं) का एक समुदाय सिख धर्म में परिवर्तित हो गया है। हालांकि हम इस बात की पुष्टि नहीं करते। क्योंकि अहोमो से इनका सम्बन्ध तर्कसंगत नही प्रतीत होता। 

यह सिख समुदाय करीब 200 साल पहले बिहार में सासाराम, गया आदि से आए थे। वे हिंदी और बंगाली बोलते हैं, अलग-अलग गुरुद्वार होते हैं, और उनके पास कोलकाता के पंजाबी-भाषी सिखों के साथ कोई सामाजिक संबंध नहीं है।

द आइडेंटिटी ऑफ़ नॉर्थ ईस्ट सिख के लेखक श्री हिमाद्री बनर्जी इनके सम्बन्ध में लिखते हैं कि करीब 200 साल पहले बिहार में सासाराम और गया आदि से (कोलकाता के बारा बाजार) आए थे। वे हिंदी और बंगाली बोलते हैं। इनका अलग सा गुरुद्वारा भी होता हैं। कोलकाता के पंजाबी-भाषी सिखों के साथ इनका कोई सामाजिक संबंध नहीं है।

इनकी परम्पराएं और वर्तमान स्थिति 
वें सिख परंपरा का बखूबी पालन करते हैं। गुरबानी, सिख इतिहास, कीर्तन और गुरुमुखी को अग्रहरि सिखों के बच्चों के लिए नियमित रूप से पढ़ाया जाता है। वे वास्तव में सिख धर्म का अनुसरण करते हैं, अग्रहरि सिख अन्य सिखों की भांति किरपान को अपने साथ रखने और अपने केश नहीं कटाते। आजकल अग्रहरि सिख के बहुत से युवा अमृतधारी (being baptized as a Khalsa by taking Amrit or nectar water) हैं। अमृत ​​संचार नियमित रूप से सासाराम, केदली, और कोलकाता के गुरुद्वाराओ में होता हैं।  वर्तमान में इन्होने में पंजाबी भाषी सिखों के साथ भी सामाजिक संबंध स्थापित कर लिए हैं। इसके अलावा वे पवित श्री गुरुगन्था साहिब जी के अनुसार ही सभी अनुष्ठानों को पूरा करते हैं। 

वे हिंदू अग्रहरि और सिख अग्रहरि दोनों में विवाह करते हैं।  सिख परिवार में अरोड़ा, अहुवालिया में भी शादी-ब्याह के सम्बन्ध हैं। आज इस समुदाय के लोग अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, यू. के. यूरोप और गल्फ देशों में भी जा बसे हैं। 



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कविता: अग्रसेन की अमर कहानी



Agrasen Maharaj

सुनो-सुनो ऐ दुनिया वालों अग्रसेन की अमर कहानी, 
अग्रसेन का जीवन ऐसा, जैसा निर्मल गंगा का पानी।

सुनो-सुनो ऐ...

प्रतापगढ़ के राजा बल्लभ के घर जन्म था पाया, 
द्वापर युग के अन्तकाल में यह महापुरुष आया,
पूरब-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण में था गौरव छाया,
महाप्रतापी अग्रसेन का देवर्षों ने गुण गाया।

सुनो-सुनो ऐ...

नागराज कुमुद की कन्या से था ब्याह रचाया, 
मिली माधवी अग्रसेन को कुल का मान बढाया,
महाप्रतापी अग्रसेन से इन्द्रदेव घबराया, 
इन दोनों को नारद जी ने प्रेम मिलाप कराया।

सुनो-सुनो ऐ...

शादी करके अग्रसेन जी यमुना तट पर आये, 
महालक्ष्मी का तप करने  को संग माधवी लाये,
हुई प्रगट जब महालक्ष्मी नव दम्पति हर्षाये,
युग-युग जियो , ऐसा वर श्री माता से पाये।

सुनो-सुनो ऐ...

बने अग्र गणराज्य जगत में नवतरंग मन भाई,
अग्रसेन ने अग्रोहा में सुन्दर नगरी बसायी,
कलरव करते जीव-जन्तु शोभा मन हर्षायी, 
मिल-जुल कर सब खुश रहते कोई बहन हो या भाई।

सुनो-सुनो ऐ...

सुनो-सुनो ऐ दुनिया वालों अग्रसेन की अमर कहानी, 
अग्रसेन का जीवन ऐसा, जैसा निर्मल गंगा का पानी।
सुनो-सुनो ऐ...


रचयिता :- (इंजि) डॉ० हरिकृष्ण प्रसाद गुप्त "अग्रहरि"





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