अग्रहरि समाज के अधिकांश परिवारों के कुल देवता "काले-गोर" कहे जाते हैं, इसका तात्पर्य सर्प से हैं। कहा जाता हैं कि महाराजा अग्रसेन की दो रानियाँ थी, एक राज कन्या थी, दूजी नाग कन्या। सत्यनारायण गुप्त अग्रहरि जी अपनी पुस्तक हम कौन हैं: अग्रहरि समाज का प्रमाणिक इतिहास में लिखते हैं, "नाग कन्या से जो संतान हुई वो अग्रहरि कहलाई, और दूसरी रानी से जो संतान हुई, वो राजवंशी कहलाई।"
हमारे पितामह अग्रोहा नरेश महाराज अग्रसेन का विवाह नाग वंश की कन्या राजकुमारी माधवी से हुआ था। हम सभी महाराजा अग्रसेन की वंशज हैं, इस प्रकार हमारा नाग वंश से भी सम्बन्ध हुआ।
आज भी अग्रहरि समुदाय व अग्रवंश की अन्य उपजातिय शाखाओं के अधिकांश परिवारों कुल देवता 'काले-गोरे' है, जिसका तात्पर्य नाग से है।
क्या नाग से तात्पर्य सर्प से हैं? या नाग वंश से? एक मानव का एक नागिन से विवाह होना विश्वसनीय नही है। नाग से तात्पर्य नाग नामक वंश से हैं, जो मानवों का हैं।
अति प्राचीन काल में जब मानव पूर्ण रूप से असभ्य था। उस समय मानव की आदिम जातियां किसी वृक्ष, प्राकृतिक वस्तु, पशु की उपासना करती थी और अपने को उसी के नाम से प्रकट करती थी। हमारे इतिहास पूराण में जो पशु, वृक्ष, अधिकांश बाते करते दिखाए गये हैं जैसे गरुण, वानर, नाग, वृक्ष, हंस, मत्स्य, शुक, काग आदि इत्यादि वें वास्तव में पशु-पक्षी नहीं थे। वें मानव ही थे जो अपने टॉटेम के नाम पर पुकारी जाती थी।
जनमेजय के नागयज्ञ में भी नाग से तात्पर्य नाग वंश से हैं। अग्रोत्कान्वय के पृष्ठ २१ पर उल्लेखित किया गया हैं कि "जनमेजय के नाग यज्ञ के समय नागों (वैश्यों) का सामूहिक रूप से ह्रास हुआ। उसका प्रभाव भी अग्रोहा के अभ्युदय को धुल में मिलाने वाला सिद्ध हुआ।
नागराज समाह्रेयो गौड़ राजा भविष्यति,अन्ते तस्य नृपे तिष्ठं ध्यांवर्नत द्रिशौ।
वैश्येः परिवृता वैश्यं नागा ह्रेयो समन्ततः॥
(मंंजु श्रीमूल कल्प, पृष्ठ ५५-५६)
मंजू श्रीमूूूल कल्प मेंं नागवंश का वृत्तान्त दिया गया हैं और नागो को वैश्य या वैश्यनाग लिखा गया हैं।
श्री सत्यकेतु विद्यालंकार जी ने भी इसी मत की पुष्टि अग्रवाल जाति के प्राचीन इतिहास नामक पुस्तक में की हैं।
प्रत्येक टॉटेम अपने इष्ट पशु-पक्षियों के नामों पर अपने वंश का नाम रखते थे। उनसे सम्बंधित चिन्हों का प्रयोग करते थे। उनकी पूजा करते थे। वानर को इष्ट मानने वाली आदिम जाति वानरों की खाल का प्रयोग वस्त्रो के रूप में करती थी। उस खाल की निर्जीव पूछ आदि अंगो का वह सम्मान करती थी। नाग, गरुड़ आदि जाति के लोग अपने मुकुट आदि आभूषण इन्हीं चिन्हों विशेष में अंकित करते थे।
यह सोचना कि नाग वास्तव में प्राचीन काल में मनुष्य नहीं सांप थे गलत है, क्योंकि प्रत्येक जगह के नाग मनुष्याकरण धारण कर लेना वर्णित हैं। और नागों की संस्कृत का भी आभास उसमें प्राप्त होता हैं।
अग्रहरि समाज के सामान ही अग्रवालों की मातृका 'नाग' (सर्प) ही मानी जाती हैं। आज भी विवाह के अवसर पर वधु को चुनरी ओढाने की प्रथा प्रचलित हैं। 'चुनरी' सर्प की केचुली का प्रतीक मात्र हैं। अप्रत्यक्ष रूप से हम हर वधु को नागकन्या बना कर विवाह करते हैं।
निष्कर्ष:
प्राचीन काल में संभवतः हम टॉटेम थे, जिनका नाग वंश से सम्बंध था। इसीलिए हम काले-गोरे के रूप में आज भी नाग देवता की पूजा करते हैं। नाग वंश और नाग/सर्प में अंतर हैं। नाग वंश एक मानव समुदाय था, जो नागो पर आस्था रखता था, ना कि वें खुद नाग या साँप थे।
शब्दार्थ:
१) टॉटेम: एक विशेष समुदाय/समाज जो किसी प्राकृतिक वस्तु अथवा पशु, पक्षी अथवा जानवर में अध्यात्मिक/दैवीय महत्व देखता हैं और उसे मानता हैं और उसे (जानवर,पशु,पक्षी को) अपने समुदाय के प्रतीक अथवा कुलचिन्ह अथवा कुलदेवता के रूप में अपनाता हैं।
२) मातृका: हिन्दुओं के शाक्त सम्प्रदाय में मातृका का वर्णन महाशक्ति की सककारी सात देवियों के लिये हुआ है। ये देवियाँ- ब्रह्माणी, वैष्णवी, माहेश्वरी, इन्द्राणी, कौमारी, वाराही और चामुण्डा हैं। इन्हें 'सप्तमातृका' या 'मातर' भी कहते हैं।
आप सभी को नागपंचमी की हार्दिक शुभकामनाये।
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