हमारे अग्रहरि समुदाय का नाम सिर्फ एक शब्द नहीं, बल्कि हमारी सदियों पुरानी पहचान है। विभिन्न ग्रन्थों एवं विद्वानों ने 'अग्रहरि' शब्द की व्याख्या विभिन्न दृष्टिकोणों से की है। जिनके अध्ययन से अनेक तथ्य सामने आते हैं।
१. महाराजा अग्रसेन और अहिंसा की नींव
हम सभी को अपने परम श्रद्धेय पूर्वज महाराजा अग्रसेन पर असीम गर्व है। उन्होंने प्राचीन काल में अग्रोहा और आगरा जैसे समृद्ध नगरों की स्थापना की। अग्रोहा उनकी राजधानी थी, जहाँ से वे स्वयं शासन करते थे, जबकि आगरा में उनके अनुज 'शूरसेन' का राज था। इसी कारण यह क्षेत्र 'शौरसेन' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। महाराजा अग्रसेन ने कुल 18 महायज्ञ संपन्न किए। इनमें से 17 यज्ञ निर्विघ्न और सफलतापूर्वक पूरे हुए।लेकिन, 18वें यज्ञ में होने वाली पशुबलि ने महाराजा अग्रसेन के मन को अत्यधिक विचलित कर दिया। उन्हें लगा कि पशुवध एक महापाप है, और वे ऐसी हिंसा के पक्ष में नहीं थे। इसलिए, उन्होंने 18वें यज्ञ को अधूरा छोड़ दिया। उन्होंने तत्काल आदेश दिया, "मैं पशु हिंसा को उचित नहीं समझता, अतः मैं अपने भाई, पुत्रों, कन्याओं और कुटुम्बियों को तथा उपस्थित सत्रह वैश्य कुलों को यही उपदेश देता हूँ कि कोई भी हिंसा न करे।"
यह घटना 'अग्रोतकान्वय' (पृष्ठ ६१, ६२) में भी वर्णित है और यह स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि महाराजा अग्रसेन के समय में ही हमारे समाज में 17 विशिष्ट वैश्य कुल मौजूद थे, जिनकी अगुवाई वे स्वयं कर रहे थे।
२. हरिजी का प्रभाव और 'अग्रहरि' शब्द की उत्पत्ति
यह एक महत्वपूर्ण किंवदंती है कि 18वें यज्ञ की देखरेख कुबेर 'हरिजी' करने वाले थे। हरिजी भगवान विष्णु के भक्त थे और अहिंसा में उनकी गहरी आस्था थी। यह अत्यंत संभव है कि उन्हीं की गहन प्रेरणा और प्रोत्साहन से महाराजा अग्रसेन ने अहिंसा का मार्ग अपनाया और यज्ञ में पशुबलि को रोका। यह उनके वैश्य धर्म के अनुरूप भी था, क्योंकि कौटिल्य के अर्थशास्त्र (१/४) के अनुसार, वैश्य वर्ग का परम धर्म कृषि, पशुपालन और वाणिज्य ही है।
'उरु चरितम्' (७७-७८) में भी इसी भावना को व्यक्त किया गया है:
"वैश्यों का प्रधान कर्म मुख्यतः यह कहा गया है कि वे पशुओं का पालन तथा उनकी सब ओर से रक्षा करें। यज्ञ में पशुवध होता है, इसलिए मैं पाप का भागी हूँ। यह विचार प्रतिक्षण मेरे हृदय में दृढ़ होता जा रहा है।"
हरिजी ने हिंसा से जुड़े कार्यों में सहयोग नहीं दिया और उन्होंने स्वयं को अन्य अग्रवालों से अलग कर लिया। इस प्रकार, वे 'अलगाहारी' (अलग आहार करने वाले) बनकर अपना शुद्ध भोजन अलग से बनाने और ग्रहण करने लगे। समय के साथ, 'अलगाहारी' शब्द 'अल्गाहारी' में बदला, फिर 'अग्रहारि' में और अंततः हमारा वर्तमान नाम 'अग्रहरि' बन गया। इस परिवर्तन का उल्लेख 'गुप्त जाति का इतिहास' (पृष्ठ ४०) में भी मिलता है।
३. 'अग्र' विशेषण का महत्व और हरिजी की शाखा
हरिजी ने अग्रवालों से पृथक होने के बाद भी अपने महान अग्रवंश की स्मृति को चिरस्थायी रखने के लिए अपने नाम के आगे 'अग्र' विशेषण लगाया और स्वयं को अग्रहरि कहलाने लगे। 'दिलवारी वैश्य इतिहास' (पृष्ठ १६७) के अनुसार, वे अग्रवाल जो हरिजी की विचारधारा या शाखा से जुड़े, वे 'अग्रहरि' नाम से प्रसिद्ध हुए। यह हमारी एक विशिष्ट शाखा का प्रतिनिधित्व करता है।४. 'अग्रहार' शब्द और वैश्यवर्ग से संबंध
शब्दकोश में 'अग्रहार' शब्द के तीन मुख्य अर्थ दिए गए हैं:
- राजा की ओर से ब्राह्मणों को दी हुई भूमि
- देवता को अर्पित संपत्ति
- धान्य से भरे खेत
चूँकि हमारे पूर्वज वैश्य वर्ग के रूप में प्रमुख रूप से कृषि कार्य में संलग्न थे, यह संभव है कि धान्य से परिपूर्ण खेतों के स्वामियों के लिए 'अग्रहारी' शब्द का प्रयोग हुआ हो। अथवा महाराजा अग्रसेन स्वयं एक महान दानी थे, संभव है उन्होंने ब्राह्मणों को कोई भूभाग या संपत्ति अर्पित की हो, और उस भूभाग में निवास करने वाले लोग 'अग्रहारि' कहलाने लगे हों।
५. 'वाल' और 'हारी' शब्दों का प्रयोग: क्षेत्रीय भिन्नता का प्रभाव
'वाल' और 'हारी' दोनों ही शब्द संबंध सूचक हैं, जिनका मूल अर्थ 'रहने वाले' या 'निवासी' होता है। इस प्रकार, 'अग्रवाला' का अर्थ अग्रोहा के निवासी हैं, और ठीक उसी तरह, 'अग्र+हारी' का अर्थ भी अग्रोहा के निवासी हैं। यह प्रश्न उठता है कि कुछ ने 'वाला' और कुछ ने 'हारी' शब्द का प्रयोग क्यों किया? संभावना यह है कि प्रांतीय भेद के कारण इन भिन्न शब्दों का प्रयोग हुआ हो, जो बाद में एक निश्चित पहचान का सूचक बन गया।६. 'अग्रोहारी' से 'अग्रहरि' तक का सफर
जिस प्रकार 'महेश्वरी' शब्द से महेश्वर नामक मूल स्थान का बोध होता है, उसी प्रकार यह माना जा सकता है कि अग्रोहा के निवासियों ने स्वयं को 'अग्रोहारी' कहा होगा। समय के साथ, 'अग्रोहारी' शब्द का परिवर्तित रूप 'अगराहारी' और अंततः हमारा नाम 'अग्रहरि' बन गया। यह भाषा विज्ञान के "प्रयत्नलाघव" या "मुख-सुख" सिद्धांत का एक उदाहरण है, जहाँ उच्चारण की सुविधा के लिए शब्दों में परिवर्तन होता है।७. 'जाति भास्कर' में अग्रहरि का उल्लेख
'जाति भास्कर' नामक एक प्राचीन ग्रंथ में एक श्लोक आया है:"
अग्रवालस्य वीर्येण संजाता विप्रयोषिति अग्रहारी, कस्त्रवानी, माहूरी संप्रतिष्ठिताः" (जात भास्कर पृष्ठ २६३)
इस श्लोक के अनुसार, अग्रहारी, कस्त्रवानी और माहूरी, अग्रवाल पिता और ब्राह्मण माता की वर्ण संकर संतान हैं। पुराने स्मृतिकारों ने विविध जातियों की उत्पत्ति की व्याख्या इसी प्रकार की है।
लेकिन, यहाँ एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठता है: यदि वंश का नाम पिता पर चलता है और अग्रवाल को पिता बताया गया है, तो उनसे अन्य वंशों के नामकरण क्यों हुए?
श्री सत्यकेतु विद्यालंकार डी.लिट जैसे आधुनिक और सम्मानित विद्वानों ने इस मत का पुरजोर विरोध किया है। उन्होंने 'अग्रवाल जाति का प्राचीन इतिहास' (पृष्ठ २६५) में स्पष्ट लिखा है: 'हमारी सम्मति में इसमें सत्यता नहीं है। हमारा विचार है कि अग्रवाल जाति में से ही पृथक होकर इन बिरादरियों की स्थापना हुई, वर्ण संकर के कारण से नहीं। अग्रहारी वैश्यों का अग्रवालों से घनिष्ठ संबंध है, यह बात निश्चित है।' हम अपने समुदाय के रूप में इस आधुनिक और तार्किक मत का समर्थन करते हैं।
८. महाराज अग्रसेन के पुत्र 'हरि' से संबंध की संभावना
अग्रहारी-मित्र प्रयाग के विद्वान संपादक श्री भवानी प्रसाद गुप्त का विचार है कि महाराजा अग्रसेन के पुत्र 'हरि' की संतान ही अग्रहरि वैश्य हैं। परन्तु, महाराजा अग्रसेन की १८ रानियों से उत्पन्न ५४ पुत्रों के नामों में हरि के नाम का कहीं उल्लेख नहीं मिलता। इस संदर्भ में दो कल्पनाएँ की जा सकती हैं:महाराज अग्रसेन के सबसे बड़े पुत्र का नाम विभु था। 'विभु' का अर्थ विष्णु या हरि भी होता है। संभव है कि विभु के समानार्थी 'हरि' से ही हमारे अग्रहरि वंश की उत्पत्ति हुई हो।
दूसरी संभावना अधिक तथ्यपूर्ण और तर्कसंगत लगती है। 'हरि' सीधे तौर पर अग्रसेन के पुत्र नहीं थे। चूँकि राजा और प्रजा में एक पिता-पुत्र का संबंध माना जाता था, इसीलिए हरि को महाराज अग्रसेन का 'पुत्र' कहा गया हो। संभवतः, हरिजी का महाराज अग्रसेन पर विशेष प्रभाव था, जिसने उन्हें यज्ञ में बलि जैसे हिंसात्मक कार्यों से ग्लानि उत्पन्न की और उन्हें अहिंसा की ओर मोड़ा। इस कल्पना से 'अग्रोतकान्वय' में दिए गए तथ्य और श्री भवानी प्रसाद गुप्त के तथ्य में एक सामंजस्य स्थापित हो जाता है।
९. मुग़ल काल में विभाजन: अग्रवाल और माहुर की पहचान
मुग़ल काल का समय हमारे वैश्य समाज के लिए एक चुनौती भरा दौर था, जहाँ विभिन्न परिस्थितियाँ उत्पन्न हुईं। जिस प्रकार राजपूतों में राजा मानसिंह जैसे कुछ लोगों ने अकबर को अपनी लड़कियाँ देकर मेल बढ़ाया, वहीं राणा प्रताप जैसे वीरों ने घास की रोटी खाकर भी जंगल-जंगल भटकते हुए अंत तक अकबर का मुकाबला किया; यही स्थिति हमारे वैश्य समाज में भी थी।वैश्यों के एक वर्ग ने राज्य के साथ मेल-मिलाप बढ़ाकर अपना यश और वैभव बढ़ाया, और वे मुसलमान छावनियों में 'मोदी' जैसे महत्वपूर्ण पदों पर प्रतिष्ठित हुए। वहीं, दूसरे वर्ग ने अपनी आन-बान-शान और आत्म-सम्मान के लिए विदेशी शासकों से टक्कर ली। ऐसे स्वाभिमानी और राष्ट्रभक्त वैश्य, मुगल काल में पददलित हुए और उन्हें अपमानजनक रूप से 'माहुर' (विष की गाँठ अर्थात शत्रु) नाम से संबोधित किया जाने लगा। इस प्रकार, अकबर के शासन काल (सन १५५६ से १६०५) के मध्य अग्रवालों के दो मुख्य भेद हो गए:
- अग्रवाल
- माहुर
१०. 'अग्रहार भूमि' से 'अग्रहरि' की व्युत्पत्ति
बाबू सीताराम एडवोकेट द्वारा रचित 'अग्रहरि जाति की उत्पत्ति' में लेखक ने 'अग्रहार भूमि' के निवासियों को 'अग्रहरि' कहा है। अनेक ग्रंथों के उद्धरणों से इस बात की पुष्टि होती है कि पंजाब प्रांत के हिसार जिले की फतेहबाद तहसील से सात मील दूर सिरसा-दिल्ली सड़क के किनारे अग्रजनपद था। पुरातात्विक विभाग की खुदाई में प्राप्त मुद्राओं पर भी 'अग्रोदक' शब्द लिखा हुआ है। सन १९३६ की खुदाई में प्राप्त ताम्र सिक्कों पर ब्राह्मी लिपि में 'अगोद के अगाच जनपद' शब्द अंकित हैं।श्री बावन शिवराम आपटे के संस्कृत-हिंदी कोश (पृष्ठ १२०८) में अग्रहार शब्द की व्युत्पत्ति के संबंध में लिखा गया है कि अग्रहार भूमि में हरि और हर के मंदिर आमने-सामने हैं, इसी से अग्रहार शब्द बना। श्री बाबू सीताराम जी का एक और मत है कि 'अग्रहरि' शब्द की व्युत्पत्ति 'अग्रऋषि' से ही संबंधित है। इसके अतिरिक्त, शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार भी हो सकती है: अग्रऋषि की हरि उपासक संतान जो अपनी जाति को अपने पूर्वज अग्रऋषि एवं उपास्य देव हरि के नामों से विभाजित करना चाहती थी, उन्होंने स्वयं को 'अग्रहरि' संज्ञा से संबोधित किया।
यह पुस्तिका (अग्रहरि जाति की उत्पत्ति) अनेक प्रामाणिक ग्रंथों के उद्धरणों द्वारा हमारी 'अग्रहरि' जाति की प्रामाणिकता पर प्रकाश डालती है। अग्रजनपद, अग्रोहा आदि ऐतिहासिक स्थान हैं। मेरे मतानुसार, अग्रोहा निवासियों के लिए 'अग्रोहारी' शब्द प्रयुक्त हुआ हो, जिसका परिवर्तित रूप 'अग्रहारी' या 'अग्रहरि' बन गया है।
११. युद्ध में पराजय से 'अग्रहरि' नामकरण, एक अन्य पहलू
कुछ मतों के आधार पर यह भी कहा गया है कि आगरा (अथवा अग्रोहा) में हुए एक युद्ध में पराजय के बाद, जो लोग आगरा हार कर दूसरे स्थान पर रहने लगे, वह समुदाय 'अगरा-हारी' नाम से संबोधित किया जाने लगा। यही शब्द बाद में 'अग्रहरि' अथवा 'अग्रहरी' नाम से सुविख्यात हो गया। ('अग्रहरि समाज मासिक अक्टूबर १९६७ पृष्ठ २८')१२. राजा हरि के नाम पर 'अग्रहरि' का प्रचलन
एक मत यह भी है कि राजा अग्रसेन की पाँचवीं पीढ़ी में राजा हरि हुए, और उन्हीं राजा हरि के नाम पर 'अग्रहरि' शब्द प्रचलित हो गया। हालांकि, हमारे समुदाय ने दो महान राजाओं, अग्रसेन और हरि, के नाम पर अपना नाम अग्रहरि रखा हो, यह मत विशेष तर्कसंगत नहीं लगता है।१३. खान-पान और संस्कृति के आधार पर विभाजन
कुछ इतिहासकारों का मत है कि यह समुदाय खान-पान, प्राचीनतम संस्कृति व ईश्वर को अधिक मानता था इससे 'अग्र' शब्द के साथ हरि शब्द जोडकर अग्रवालों से पृथक बिरादरी अग्रहरि बनाली।इन विशिष्ट मतों के अतिरिक्त अनेक विद्वानों ने अग्रहरि शब्द की व्युत्पत्ति बताने का प्रयास किया है परन्तु लगभग सभी मत उपरोक्त मतों एवं तर्कों के अन्तर्गत ही आते हैं। इस प्रकार विचार मंथन करने से कुछ तथ्य सामने आते हैं - 'अग्रहरि' व 'अग्रहारी' शब्द में से कौन सा शब्द उपयुक्त है?
अग्रहरि जाति का सम्बन्ध निर्विवाद रूप से अग्रवालों से है। साथ ही महाराज अग्रसेन का सम्बन्ध भी अग्रहरि जाति से है।
अग्रवालों से किसी कारण विशेष से यह बिरादरी पृथक हुई। गुलाबचन्द एरन के मतानुसार सन ११९४ ई. में अग्रहरि जाति अग्रवाल जाति से पृथक हो गई। यह जाति भी अग्रवंश की एक शाखा ही है।
(अग्रवाल जाति का प्रामाणिक सचित्र इतिहास- गुलाबचन्द एरन, ६६ पृष्ठ)
अग्रहरि जाति शुद्ध सात्विक भोजन करने वाली यज्ञोपवित धारण करने वाली है। अग्रवालों के समान ही यह भी अति प्राचीन है। परन्तु अल्प संख्यक होने के कारण अग्रवालों के समान विशेष जन प्रसिद्ध नहीं हो सकी।
'अग्रहरि' और 'अग्रहारी' दोनों ही शब्द एक ही बिरादरी के लिये प्रयुक्त किये गये हैं। प्रान्तीय भेद व प्रयत्नलाघव मुख-सुख (भाषा विज्ञान के सिद्धान्त) के कारण शब्दों को तोड़ा मरोड़ा जा सकता है। कुछ भाई अपने को 'अग्रोहारी' भी बताते हैं।
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