अग्रहरि शादियों के रीति रिवाज़


१) बीरा : अग्रहरि समाज में बीरा, सम्बन्ध पक्का करने का द्योतक हैं। प्राचीन काल में पान का बीड़ा किसी काम करने के दृढ़ निश्चय हेतु उठाया जाता था। अक्षत (चावल), एक रूपया एवं पान के बीड़े, हल्दी, सुपारी का भी विशेष महत्व हैं। परन्तु आज लौकिक प्रदर्शन की भावना से विभिन्न उप प्रचलित हो गए हैं। 


२) लग्न : लग्न का अर्थ होता हैं मुहूर्त। कान्य-पक्ष विवाह का शुभ मुहूर्त निकाल कर वर पक्ष को भेजता हैं। 

३) खन माटी मंडपाच्छादन एवं हरिद्रालेपन : खन माटी से वैवाहिक कार्यक्रम का प्रारम्भ होता हैं- इसके पीछे मूल भावना मिट्टी का पूजन हैं। साथ ही मूसल, चक्की, दराती, चूल्हा, मथानी, आदि कई वस्तुओ का भी पूजन किया जाता हैं, जो किसी समय भारत के लिए जीवनोपयोगी वस्तुएं थी। 
प्राचीन काल में राजा-महाराजाओ के यहाँ बड़े-बड़े मण्डप बनाये जाते थे, उनका अनुसरण प्रजा अपने सामर्थ्य के अनुसार करती थी। हीरे जवाहरात आदि के स्थान पर लकड़ी का एक खम्भा गाड़ कर आत्म संतोष कर लिया जाता था। 

हरिद्रालेपन का सम्बन्ध स्वास्थ विज्ञान से हैं। हल्दी शरीर के रोम-कूपों में छिपे मैल को निकाल कर शारीरिक सौन्दर्य में अभिवृद्धि करती हैं। रक्त-प्रवाह भलीभांति होने लगता हैं और स्फूर्ति और क्रांति आती हैं। 
विवाह संस्कार का मूल उद्देश्य दो विभिन्न लैंगिक जीवधारियों का शारीरिक मिलन हैं, अतः शारीरिक सौन्दर्य की अभिवृद्धि इस उद्देश्य में सहाय्यक होती हैं। 

इस परम्परा का विकृत स्वरुप अनेक स्थानों पर देखा जाता हैं। लगातार ५-७ दिनों तक हल्दी तो लगाते है, परन्तु स्नानादि नहीं करने देते हैं। वस्त्र नहीं बदलने देते हैं।इससे शरीर में दुर्गन्ध आने लगती हैं, और सौन्दर्य अभिवृद्धि का मूल उद्देश्य नष्ट हो जाता हैं। लाभपद्र प्रथा हानिकारक सिद्ध हो जाती हैं।

४) मोर-मोरी : विवाह संस्कार में मोर मोरी का अत्यधिक महत्व होता हैं। यह प्रथा राजाओ के 'मुकुटों' का ही रूपांतर हैं। हीरे-जवाहर, स्वर्ण-रजत के स्थान पर अपने सामर्थ्य के अनुसार नकली चमक मोती पन्नी, रंग बिरंगी कागज़ आदि लगाकर मोर-मोरी बनाये जाने लगे हैं। 

५) मायन : मायन में पित्रादि देवों की पूजा की जाती हैं। परिवार के सभी व्यक्ति इस पूजा में सम्मिलित होते हैं। सभी पित्रों की आवाहन-पूजन अपनी परम्पराओ के अनुसार किया जाता हैं। 

६) द्वारचार : बारात जब कन्या-पक्ष के द्वार पर आती हैं, तब द्वारचार का रस्म होता हैं। जिसका सामान्य अर्थ द्वार पर स्वागत करना हैं। इस प्रथा में चावल, बताशे छिड़कने का रिवाज हैं। कन्यापक्ष चावल छिड़क कर शुभ संकेत देता हैं। इस स्वागत के प्रतिउत्तर में वर-पक्ष बताशे जैसी मीठी वास्तु फेंक कर कन्या पक्ष का धन्यवाद और अपनी प्रसन्नता व्यक्त करता हैं। कलश आदि मंगल एवं शुभ के द्योतक हैं। 

७) पाणिग्रहण : मंगलोपचार के बाद पाणिग्रहण संस्कार होता हैं। पाणिग्रहण संस्कृति शब्द हैं, जिसका अर्थ हाथ ग्रहण करना अर्थात वधु का हाथ वर ग्रहण करता हैं। यह जीवन पर्यंत सहयोग से गृहस्थी चलाने की प्रतिज्ञा हैं। रीति-रिवाजों के चक्कर में अधिकांश रूप निश्चित मुहूर्त पर भाँवर (फेरे) नहीं हो पाते। 

८) पैर पूजना : वर और कन्या के पैर कन्या पक्ष की ओर से पूजे जाते हैं। इसमें मूल भावना श्रद्धा एवं पवित्रता की हैं। पैर पूजने वाले कन्या के ससुराल का पानी भी पीने से बेरवाज करते हैं। 

९) खिचड़ी : विवाह के दूसरे दिन खिचडी होती हैं। इस प्रथा का धीरे-धीरे लोप होता जा रहा हैं। केवल प्रथा-पालन की दृष्टी से अन्य भोज्य पदार्थो के साथ खिचडी निमित्त मात्र परोस दी जाती हैं। इस प्रथा का मूल कारण संध्याकालीन प्रीति भोज की तैयारी थी। साथ ही हल्का भोजन स्वस्थ्यपद्र रहता हैं। यह  भावना भी थी कि वैवाहिक कार्यक्रम में गरिष्ठ पदार्थो की ही अधिकता रहती हैं। कतिपय लोगो के विचार है दाल और चावल क्रमशः वर और कन्या पक्ष का प्रतीक हैं। जैसे दाल चावल मिलकर खिचडी बन जाती है, वैसे ही वर और कन्या पक्ष का सम्मलेन हो। परन्तु कई स्थानों पर खिचडी के नेग को लेकर जो खीचातानी होती हैं, वह ह्रदय की समस्त श्रद्धा को नष्ट कर हम अग्रहरियों को बनिया बना देती हैं। 

१०) अन्य वैवाहिक रश्म एवं रिवाज़ : इसके अतिरिक्त मिलनी, परछन, गाली-गवाई, जूता-चुराई, बाती मिलाई, आदि अनेक कार्यक्रम होते हैं। 

ImageCourtesy: NYTimes


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